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तृतीय खण्ड।
[२३१ विशेपार्थ-जो कोई साधु या अन्य आत्मा सात तत्त्व नव पदार्थोका स्वरूप स्याद्वाद नयके द्वारा यथार्थ न जानकर औरका
और श्रद्धान कर लेते हैं और यही निर्णय कर लेते हैं कि आगममें तो यही तत्व कहे हैं वे मिथ्या श्रद्धानी या मिथ्याज्ञानी जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव स्वरूप पांच प्रकार संसारके भ्रमणसे रहित शुद्ध आत्माकी भावनासे हटे हुए इस वर्तमान कालसे आगे भविष्यमें भी नारकादि दुःखोंके अत्यन्त कटुक फलोंसे भरे हुए संसारमें अनन्तकाल तक भ्रमण करते रहते हैं । इसलिये इस तरह संसार भ्रमणमें परिणमन करनेवाले पुरुष ही अभेद नयसे संसार स्वरूप जानने योग्य हैं। ___ भावार्थ-वास्तवमें जिन जीवोंके तत्वोंका यथार्थ श्रद्धान व ज्ञान नहीं है वे ही अन्यथा आचरण करते हुए. पाप कर्मोको व पापानुबन्धी पुण्य कर्मोको बांधते हुए नर्क, तिर्यंच, मनुष्य, देव चारों ही गतियोंमें अनतकाल तक भ्रमण किया करते हैं । रागद्वेष मोह संसार है। इन ही भावोंसे आठ कर्मोका बन्ध होता है । कर्मोंके उदयसे शरीरकी प्राप्ति होती है। शरीरमें वासकर फिर राग द्वेष मोह करता है । फिर कर्मोको बांधता है। फिर शरीरकी प्राप्ति होती है । इस तरह बराबर यह मिथ्यादृष्टी अज्ञानी जीव भ्रमण करता रहता है । आत्मा और अनात्माके भेदज्ञानको न पाकर परमें आत्मबुद्धि करना व सांसारिक सुखोंमें उपादेय बुद्धि रखना सो ही मोह है। मोहके आधीन हो इष्ट पदार्थोंमें राग और अनिष्ट पदार्थोंसे द्वेष करना ये ही संसारके कारणीभूत अनन्तानुबंधी कषाय रूप रागद्वेष हैं । इन ही भावोंको यथार्थमें संसार