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श्रीप्रवचनसारटोका |
गुणाः सुपूजिता लोके गुणाः कल्याणकारकाः । गुणहीना हि लोकेऽस्मिन् महान्तोऽपि मलोमसाः ॥ २७३ ॥ सद्गुणैः गुरुतां यांति कुलहीनीऽपि मानवः । निर्गुणः सकुलाढ्योsपे लघुतां याति तत्क्षणात् ||२७|| भावार्थ - इस जगतमें गुण ही पूजनीक होते हैं, गुण ही कल्याण करनेवाले होते हैं, जो गुणहीन होवे तो इस लोकमें बड़े२ पुरुष भी मलीन हो जाते हैं । कुलहीन मनुष्य भी सद्गुणोंके होते हुए बड़ा माना जाता है जब कि कुलवान होकर भी यदि गुणरहित हैं तो उसी क्षणसे नीचेपनेको प्राप्त हो जाता है ॥ ९२ ॥
उत्थानिका- आगे पांचवें स्थल में संक्षेपसे संसारका स्वरूप, मोक्षका स्वरूप, मोक्षका साधन, सर्व मनोरथ स्थान लाभ तथा शास्त्रपाठका लाभ इन पांच रत्नोंको पांच गाथाओंसे व्याख्यान. करते हैं । प्रथम ही संसारका स्वरूप प्रगट करते हैं
जे अजादित्था देवत्ति णिच्छिदा समये । अच्चैतफलसमिद्धं भमंति तेतो परं कालं ॥ ९३ ॥
गृहोता ते तत्त्वमिति निश्चिताः समये । अत्यन्तफलसमृद्धं भ्रमन्ति ते अतः परं कालं ॥ ६३ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थः - (जे) जो कोई (अजधागहिदत्था ) अन्य प्रकारसे असत्य प्रदार्थोंके स्वभावको जानते हुए (एदेतञ्चत्तिसमये ) ये ही आगममें तत्त्व कहे हैं ऐसा ( णिच्छदा ) निश्वय कर लेते हैं (तेतो) वे साधु इस मिथ्या श्रद्धान व ज्ञानसे अबसे आगे (अच्चन्तफलसमिद्धं ) अनन्त दुःखरूपी फलसे भरे हुए संसारमें (परं कालं) अनन्त काल (भमंति) भ्रमण करते हैं ।