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३३२] श्रीप्रवचनसारटोका। कहना चाहिये । तैसे ही इन भावोंमें परिणमन करनेवाले जीव भी संसार रूप जानने । अनेक अभव्य जीव मिथ्याश्नहानकी गांठको न खोलते हुए मुनि होकर भी पुण्य वांध नौ ग्रेवेयक तक चले जाते हैं, परन्तु मोक्षके मार्गको न पाकर कभी भी चतुर्गति भ्रमणसे छुटकारा नहीं पाते हैं। वास्तवमें मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ही संसारतत्त्व है । जैसा कहा है
सदृष्टिज्ञानवतानि धर्म धर्मेश्वरी विदुः ।। यदोयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥ ३ ॥
भावार्थ-तीर्थकरोंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्रको धर्म कहा है, जब कि इनके उलटे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान
और मिथ्याचारित्र संसारकी परिपाटिको बढ़ानेवाले हैं । ___ श्री अमितिगति भहाराजने सुभाषित रत्नसंदोहमें संसारतत्त्व इस तरह बताया हैयादमध्यानतपोन्नतादयो गुणाः समस्ता न भवन्ति सर्वथा । दुरन्तमिथ्यात्त्वरजोहतात्मनो रजोयुतालावुगतं यथा पयः ॥१३७१
भावार्थ-जिसकी आत्मामें दुःखदाई मिथ्यादर्शनरूपी रज़ पड़ी हुई है उसकी आत्मामें जैसे रजसे भरी हुई तूम्बीमें जलकी स्वच्छता नहीं झलकती है वैसे दया, संयम, ध्यान, तप व व्रतादि गुण सर्व ही सर्वथा नहीं प्रगट हो सक्ते हैं
धातु धर्म दशधा तु पावनं करोतु भिक्षाशनमस्तदूषणम् । तनोतु योगं धृतचिंत्तचिस्तर तथापि मिथ्यात्त्वयुतो न मुच्यते १४२ दातुं दानं बहुधा चतुर्विधं करोतु पूजामतिभक्तितोऽहताम् । दधातु शीलं तनुतामभोजनं तथापि मिथ्यात्त्ववंशो न सिद्धयति१४३