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mamminaarma
तृताय खण्ड। [ ३०५ होते हैं, परम चैतन्य ज्योतिमई परमात्म पदार्थक ज्ञानके लिये . उनकी परम भक्तिसे सेवा करते हैं तथा उनको नमस्कार करते हैं। यदि कोई चारित्र व तपमें अपनेसे अधिक न हो तो भी सम्यग्ज्ञानमें बड़ा समझकर श्रुतकी विनयके लिये उनका आदर करते हैं। यहां यह तात्पर्य है कि जो कि बहुत शास्त्रोंके ज्ञाता हैं, परन्तु चारित्रमें अधिक नहीं हैं तौभी परमागमके अभ्यासके लिये उनको यथायोग्य नमस्कार करना योग्य है। दूसरा कारण यह है कि वे सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानमें पहलेसे ही दृढ़ हैं। जिसके मम्यक्त व ज्ञानमें दृढ़ता नहीं है वह साधु बन्दना योग्य नहीं है । आगममें जो अल्पचारित्रवालोंको वन्दना आदिका निपेध किया है वह इसी लिये कि मर्यादाका उल्लंघन न हो। ' : - .
• भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने और भी स्पष्ट कर दिया है। कि जो सच्चे श्रमण हैं वे ही विनयके योग्य हैं । जो श्रमणाभास हैं वे वन्दना योग्य नहीं हैं । सच्चे साधुओंके गुण यही हैं कि वेन सिद्धांतके भावके मर्मी हों और संयम तपमें सावधान रहते हुए आत्मीक तत्त्वज्ञानमें भीजे हुए हों । जिसमें सम्यग्दर्शन तथा मम्यग्ज्ञान है तथा अपनेसे अधिक तप व चारित्र नहीं है अर्थात् जो कठिन तप व चारित्र नहीं पालते हैं तौभी अपने मूलगुणोंमें सावधान हैं उनकी भी भक्ति अन्य साधुओंको करनी योग्य है। इन साधुओंमें जो बड़े विद्वान हैं उनकी तो अच्छी तरह सेवा करनी योग्य है अर्थात उनकी भक्ति करके उनसे सूत्रका भाव समझ लेना योग्य है। विनय करना धर्मात्मामें प्रेम बढ़ानेके मिवाय धर्ममें अपना प्रेम बढ़ा देता है । स्वयं श्रद्धा, ज्ञान व