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३०४ ] श्रीप्रवचनसारटोका। गृहस्थके योग्य बचन न कहना, क्रिया रहित वाक्य न बोलना, निरादरके बचन न कहना सो सब वचन द्वारा विनय है ॥८॥
उत्थानिका-आगे अभ्यागत साधुओंकी विनयको दूसरे प्रकारसे बताते हैं
अन्भुट्टेया समणा सुत्तत्यविसारदा उवासेया। संजमतवणाणड्ढा पणिवदणीया हि समणेहिं ।। ८४ ॥ अभ्युत्थेयाः श्रमणाः सूत्रार्थविशारदा उपासेयाः। संयमतपोशानाढ्याः प्रणिपतनीया हि श्रमणैः ॥ ८४ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थः-( समाणेहिं ) साधुओंके द्वारा (हि) निश्चय करके (सुत्तत्थविसारदा) शास्त्रोंके अर्थमें पंडित तथा (संजमतवणाणड्ढा) संयम, तप और ज्ञानसे पूर्ण (समणा) साधुगण (अन्मुट्टेया) खड़े होकर आदर करने योग्य हैं, (उवासेया) उपासना करने योग्य हैं तथा (पणिवदणीया) नमस्कार करने योग्य हैं ।
विशेषार्थ-जो निग्रंथ आचार्य, उपाध्याय या साधु विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावमई परमात्मतत्त्वको आदि लेकर अनेक धर्ममई पदार्थोके ज्ञानमें वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कंथित मार्गके अनुसार प्रमाण, नय, निक्षेपोंके द्वारा विचार करनेके लिये चतुर बुद्धिके धारक हैं तथा बाहरमें इंद्रियसंयम व प्राणसंयमको पालते हुए भीतरमें इनके वलसे अपने शुद्धात्माके ध्यानमें यत्नशील हैं ऐसे संयमी हैं तथा बाहरमें अनशनादि तपको पालते हुए भीडरमें इनके वलसे परद्रव्योंकी इच्छाको रोककर अपने आत्म स्वरूपमें तपते हैं ऐसे तपस्वी हैं, तथा बाहरमें परमागमका अभ्यास करते हुए भीतरमें स्वसंवेदन
नसे पूर्ण हैं ऐसे साधुओंको दूसरे साधु आते देख उठ खड़े