________________
Annarmaamie
तृतीय खण्ड। . [३०३ अब्भुटाणं किविकम्म णवण अंजलीय मंडाणं । पच्चूगच्छणमेदे पछिदस्सणुसाधणं चेव ॥ १७६ ॥ णीचं ठाणं णीचं गमणं णीचं च आसणं सयणं । आसणदाणं उवगरणदाणं ओग्गासदाणं च ॥ १७७ ॥' पडिरूवकायसं फासणदा 'पडिरुपकालकिरियाय । पोसणकरणं संथरफरणं उवकरणपडिलिहणं ॥ १७८ ॥ पूयावयणं हिदभासणं च मिदभासणं च मधुरं व । सुत्ताणुवीचिवयणं अणिटरमककस' वयणं ॥ १८० ॥ उपसंतवयणमगिहत्थवयणमकिरियमहीलणं वयणं । एसो वाइयविणो जहारिहं होदि कादयो ॥ १८१ ॥
भावार्थ-ऋषियोंके लिये आदर पूर्वक उठ खड़ा होना, सिद्ध भक्ति श्रुतभक्ति गुरुभक्ति पूर्वक कायोत्सर्ग आदि करना, प्रणाम करना, हाथ जोड़ना, आने हुए सामने लेनेको जाना, जाते हुए उनके पीछे जाना, देव तथा गुरुके सामने नीचे खड़े होना गुरुके वाएं तरफ या पीछे चलना, उनसे नीचे बैठना, सोना; गुरुको आसन देना, पीछा कमंडल शास्त्र देना, बैठने व - ध्यान करनेको गुफा आदि बना देना, गुरु व साधुके शरीरके बलके योग्य गरीरका मर्दन करना, ऋतुके अनुसार सेवा करनी, आज्ञानुसार सेवा करनी, आज्ञानुसार वर्तना, तिनकोंका संथारा विछा देना, उनके मंडल पुस्तकका भले प्रकार पीछीसे झाड़ देना इत्यादि विनय करना योग्य है; आदर पूक वचन कहनाअर्थात् बहुवचनका व्यवहार करना, इस लोक परलोकमें हितकारी वचन कहना, अल्प अक्षरोंमें मर्यादारूप बोलना, मीठा वचन कहना, शास्त्रके अनुसार, बचन कहना, कठोर व कर्कशबचन न कहना, शांत बचन कहना,