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श्रीप्रवचनसारोका ।
उनके शुद्धात्माकी भावनामें सहकारी कारणों के निमित्त उनकी "वैयावृत्य करना सो सेवा है, उनके भोजन, शयन आदिकी चिन्ता रखनी सो पोषण है, उनके व्यवहार और निश्चय रत्नत्रयके गुणोंकी महिमा करनी सो सत्कार है, हाथ जोड़कर नमस्कार करना सो अंजली करण है, नमोस्तु ऐसा वचन कहकर दंडवत करना सो प्रणाम है । गुणोंसे अधिक तपोधनोंकी इस तरह विनय करना योग्य है ।
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भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने विनय करनेके भेद बता दिये “ हैं तथा यह भाव झलका दिया है कि तपोधनोंको परस्पर विनय करना चाहिये । तथापि जो साधु अधिक गुणवान होते हैं उनकी विनय नीची श्रेणीके साधु प्रथम करते हैं । आगन्तुक साधुको किस तरह स्वागत किया जाता है तथा उसकी परीक्षा करके उसको ज्ञान दान व प्रायश्चित्त दानसे किस तरह सन्मानित किया जाता है यह चात पहले कही नाचुकी है । यहां सामान्यपने कथन है जिससे यह भी भाव लेना चाहिये कि गृहस्थ श्रावकोंको साधुओंकी विनय भले प्रकार करनी चाहिये- उनको आते देखकर खड़ा होना, उनको उच्चासन देना, उनकी वैयावृत्य करनी, उनकी शरीररक्षाका भोजनादि द्वारा ध्यान रखना, उनके रत्नत्रय धर्मकी महिमा करनी, हाथ जोड़े विनयसे बैठना, नमोस्तु कहकर दंडवत करना ये सब श्राव का मुख्य कर्तव्य है । विनय भक्ति तथा धर्मप्रेमको बढ़ानेवाला है व अपना सर्वस्व विनयके पात्रमें अर्पण करानेवाला है। इस लिये विनयको तपमें गर्भित किया है । श्री मूलाचारके पंचाचार अधिकारमें कहा है: