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तृतीय खण्ड। [ ३०१ अदि दरो सोऽजोग्गो छन्दमुवट्ठावणं च कादव्वं । जदि णेच्छदि छैडेजो अहगेहदि सो वि छेदरिहो ॥१६॥
भावार्थ-यदि वह आगंतुक साधु प्रायश्चित्तके योग्य हो ऐसा देववन्दना आदि कार्योंमें अपनी अयोग्यताको प्रगट करे तो उसका दीक्षाकाल आधाभाग या चौथाई घटा देना चाहिये अथवा यदि व्रतसे भ्रष्ठहो तो उसको फिरसे दीक्षा दे स्थिर करना चाहियेयदि वह दंड न स्वीकार करे तो उसको छोड़ देना चाहिये। अपने पास न रखना चाहिये । यदि कोई आचार्य मोहवश अयोग्य साधुको रखले तो वह स्वयं प्रायश्चित्तके योग्य हो जावे, ऐसा व्यवहार है। 'उत्थानिका-आगे विनयादि क्रियाको और भी प्रगट करते हैंअब्भुट्ठाणं गहणं उवासणं पोसणं च सक्कार। अंजलिकरणं पणमं भणिदं इह गुणाधिगाणं हि ॥३॥ अभ्युत्थान ग्रहणमुपासनं पोषणं च सत्कारः । अंजलिकरणं प्रणामो भणितमिह गुणाधिकानां हि ॥ ८३ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(इह) इस लोकमें (हि) निश्चय करके (गुणधिगाणं) अपनेसे अधिक गुणवालों के लिये (अव्भुट्ठाणं) उनको आते देख कर उठ खड़ा होना (गहणं) उनको आदरसे स्वीकार करना (उवासणं) उनकी सेवा करना (पोषण) उनकी रक्षा करना (सक्कार) उनका आदर करना (च अनलिकरणं पणम) तथा हाथ जोड़ना और नमस्कार करना (मणिदं) कहा गया है।
विशेषार्थ-खड़े होकर सामने जाना सो अभ्युत्थान है, उनको सत्कारके साथ स्वीकार करना-बैठाकर आसन देना सो ग्रहण है,