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३०६] श्रीप्रवचनसारटोका । चारित्रमें दृढ़ होनेके लिये रत्नत्रय धर्मसाधकोंकी विनय अतिशय आवश्यक है।
अनगारधर्मामृतमें सप्तम अध्याय में कहा है:ज्ञानलाभार्थमाचारावशुद्धर्थ शिवार्थिभिः । आराधनादिसंसिद्धय कार्य विनयभावनम् ॥ ७६ ॥
भावार्थ-ज्ञानके लाभके लिये, आचारकी शुद्धिके लिये व सम्यग्दर्शन आदि आराधनाकी सिद्धि के लिये मोक्षार्थियोंको विनयकी भावना निरन्तर करनी योग्य है।
और भी कहा हैद्वारं या सुगतेगणेशगणयोर्यः कार्मणं यस्तपोवृत्तज्ञानजुत्वमार्दवयशासौचित्त्यरत्नार्णवः । यः संक्लेशदवाम्बुदः श्रुतगुरुद्योतकदीपश्च यः, स क्षेप्यो विनयः परं जगदिनाज्ञापारवश्येन चेत् १७॥
भावार्थ-जो विनय मोक्षका या स्वर्गका द्वार है, संघनाथ, और संघको वश करनेवाला है, तप, ज्ञान, आनंव, मार्दव, यश, शौच, धर्म आदि रत्नोंका समुद्र है, संश्लेशरूपी दावानलको बुझानेके लिये मेघ जल है, शास्त्र और गुरुके उद्योत करनेका दीपक है, ऐसा विनय तप सर्वज्ञकी आज्ञामें चलनेवालेके लिये क्या निरादरके योग्य है। अर्थात् सदा ही भक्तिपूर्वक करने योग्य है ॥८४॥ __उत्थानिका-आगे श्रमणाभास कैसा होता है इस प्रश्नके उत्तरमें आचार्य कहते हैं
ण हा समणोत्ति महो संजमलवजुत्तसंपजुत्तोपि । जदि हदि ण असे आदपधाणे जिणवादे ॥८॥ न भवति श्रमण इति मत संयमतपासून्प्रयुक्तोपि ।। यदि श्रदत्ते नार्थानात्मप्रधानान् जिनाख्याता ॥ ८५ ॥