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२६८] श्रीप्रवचनसारटोका। दिवा पगदं वत्यू अब्भुट्ठाणप्पधाणकिरियाहि । वट्टदु लदो गुणादो विसेसिव्वोत्ति उवदेसो ॥ ८॥ दृष्ट्वा प्रकृतं वस्त्वभ्युत्थानप्रधानक्रियाभिः। वर्ततां ततो गुणाद्विशेषितव्य इति उपदेशः ॥ ८२ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(पगदं वत्थू) यथार्थ पात्रको (दिवा) देखकर (अमुट्ठाणप्पधाणकिरियाहिं ) उठ कर खड़ा होना आदि क्रियाओंसे (वट्टदु) वर्तन करना योग्य है, (तदो) पश्चात (गुणदो) रत्नत्रयमई गुणों के कारणसे (विसेसिदव्यो) उसके साथ विशेष वर्ताव करना चाहिये (ति उपदेसो) ऐसा उपदेश है।
विशेषार्थ-आचार्य महाराज किसी ऐसे साधुको-जो भीतर वीतराग शुद्धात्माकी भावनाका प्रगट करनेवाला बाहरी निर्ग्रन्थके निर्विकार रूपका धारी है-आते देखकर उस अभ्यागतके योग्य आचारके अनुकूल उठ खड़ा होना आदि क्रियाओंसे उसके साथ वर्तन करें । फिर तीन दिनोंके पीछे उसमें गुणोंकी विशेषताके कारणसे उसके साथ रत्नत्रयकी भावनाकी वृद्धि करनेवाली क्रियाओंके द्वारा विशेष वर्ताव करें। ऐसा सर्वज्ञ भगवान व गणधर देवादिका उपदेश है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने साधुसंघके वर्तावको प्रगट किया है। तपोधन रत्नत्रयमई धर्मकी अति विनय करते हैं इसीसे आप भले प्रकार उसका पालन करते हुए उन साधुओंका भी विशेप सन्मान करते हैं जो उनके निकट आते हैं तथा उनकी परीक्षा करके फिर उनके साथ विशेष कृपा दर्शाकर उनके आनेके प्रयोजनको