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तृतीय खण्ड। [२९७ एवं विधं हि यो दृष्ट्वा खगृहांगणमागतम् । मात्सर्य कुरुते मोहात् क्रिया तस्य न विद्यते ।। २०७ ॥ गुरुशुश्रूषया जन्म चित्तं सद्ध्यानचितया । श्रुतं यस्य समे याति विनियोग स पुण्यभाक् ॥ १६ ।।
भावार्थ-जो निन्दा स्तुतिमें ममान है, धीर है, अपने शरीरसे भी ममता रहित है, जितेन्द्रिय है, क्रोध विजयी है, लोभरूप महायोद्धाको वश करनेवाला है, रागद्वेषसे रहित हैं, मोक्षकी प्राप्तिमें उत्साही है. ज्ञानके अभ्यासमें नित्य रत है तथा नित्य ही शांत भावमें ठहरा हुआ है, ऐसे साधुको अपने घरके आंगणकी तरफ आने हुए देखकर जो भक्ति न करके उनसे ईर्षा रखता है वह चारित्रसे रहित है। जिसका जन्म गुरुकी सेवामें, चित्त निर्मल ध्यानकी चिन्तामें, शास्त्र समताकी प्राप्तिमें वीतता है वही नियमसे पुण्यात्मा है । अभिप्राय यही है कि परिग्रहासक्त आत्मज्ञानरहित साधुओंकी भक्ति त्यागने योग्य है और निग्रंथ आत्मज्ञानी व ध्यानी साधुओंकी भक्ति ग्रहण करने योग्य है ॥ ८१ ॥ ___ इस तरह पात्र अपात्रकी परीक्षाको कहनेकी मुख्यतासे पांच गाथाओंके द्वारा तीसरा स्थल पूर्ण हुआ।
इसके आगे आचारके कथनके ही क्रमसे पहले कहे हुए कथनको और भी दृढ़ करनेके लिये विशेष करके साधुका व्यवहार कहते हैं।
उत्थानिका-आगे दर्शाते हैं कि जो कोई साधु संघमें आवें उनका तीन दिन तक सामान्य सन्मान करना चाहिये। फिर विशेष करना चाहिये।