________________
२९६] श्रोप्रवचनसारटोका। समर्थ नहीं होते हैं तब मोह, द्वेष व अशुभ रागसे शून्य रहकर सराग चारित्रमई शुभोपयोगमें वर्तन करते हुए भव्य लोगोंको तारते हैं। ऐसे उत्तम पात्र साधुओंमें जो भव्य भक्तवान है वह भव्योंमें मुख्य नीव उत्तम पुण्य बांधकर स्वर्ग पाता है तथा परम्पराय मोक्षका लाभ करता है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने और भी स्पष्ट कर दिया है कि उत्तम पात्रोंकी भक्ति ही मोक्षकी परम्पराय कारण है । उत्तम पात्रोंका यह स्वरूप बताया है कि जो विषय कपाय सम्बंधी अशुभ पापमई मावोंको कभी नहीं धारण करते हैं तथा जो संकल्पविकल्प छोड़कर अपने भावोंको शुद्ध आत्माके अनुभवमें तल्लीन रखते हैं तथा जब इस भावमें अधिक नहीं जम सक्ते तव धर्मानुरागरूप कार्योंमें तत्पर हो जाते हैं जैसे तत्वका मनन, शास्त्रस्वाध्याय, धर्मोपदेश, वैय्यावृत्य आदि । जो कभी भी गृहस्थ सम्बन्धी पापारंभमें नहीं वर्तन करते हैं वे साधु तरण तारण हैं। उनका चारित्र दूसरोंके लिये अनुकरण करनेके योग्य है। जो भव्य जीव ऐसे साधुओंकी सेवा करते हैं वे मोक्षमार्गमें दृढ़ होते हैं । सेवारूपी शुभ भावोंसे वे अतिशयकारी पुण्य वांध लेते हैं जिससे स्वर्गादि शुभगतियोंमें जाते हैं और परम्परासे वे मोक्षके पात्र हो जाते हैं | सारसमुच्चयमें कहा है
निन्दास्तुति समं धीरं शरीरपि च निस्पृहं । जितेन्द्रियं जितक्रोधं जितलोभमहासदं ॥ २०५ ॥ रागद्वेषविनिर्मुक्तं सिद्धिसंगमनोत्सुकम् । शानाभ्यासरतं नित्यं नित्यं च प्रशमे स्थितम् ॥ २०६ ।।