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तृतीय खण्ड।
।२६३ कुहेतुनयदृष्टान्तगरलोदारदारुणैः । आचार्यव्यंजनैः स भुजगैातु न व्रजेत् ॥ १८ ॥ रागाद्यैर्वा विपाद्यैर्वा न हन्यादात्मवत्परम् । ध्रुवं हि प्राग्वधेऽनन्तं दुःखं भाज्यमुदग्वधे ॥ १० ॥
भावाथ-जो आचार्यरूप अपनेको मानते हैं, परन्तु खोटे हेतु नय व दृष्टांतरूपी विषको उगलते हैं ऐसे सर्पके समान आचार्योंकी संगति कभी न करै । जो मिथ्याचारित्रवान अपना घात विषादिवत् रागादि भावोंसे कर रहे हैं उनको दूसरोंका घात नहीं करना चाहिये, क्योंकि विपादि देनेसे किसीका नाश हो, किमी नाश णमोकार मंत्रादिके प्रतापसे न हो, परन्तु रागादिसे तो अनन्त दुःख प्राप्त होगा । अर्थात् जिनकी संगतिमे रागादिकी वृद्धि हो उनकी संगति . भी नहीं करनी चाहिये। ___ इसलिये उन सुदेव, सुगुरु व सुधर्म व उनके भक्तोंकी सेवा व संगति करनी चाहिये जिनसे मोक्षमार्गकी प्राप्ति हो [[ ७९.।।
उस्थानिका-आगे उत्तम पात्ररूप तपोधनका लक्षण कहते हैंउपरदपावो पुरिसो समभावो धम्मिगेसु सव्वेसु । गुणसमिदिदोवसेवी वदि स भागी मुमग्गस्स ॥८॥ उपरतपापः पुरुषः समभावो धार्मिकेषु सर्वेषु । गुणसमितितोपसेवो भवति स भागी सुमार्गस्य ॥ ८ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(स पुरिसो) वह पुरुष (सुम-- गास्स भागी) मोक्षमार्गका पात्र ( हवदि ) होता है जो ( उपरदपावो ) सर्व विषय कपायरूप 'पापोंसे रहित है, (सव्वेसु धम्मिगेसु समभावो ) सर्व धर्मात्माओं में समानभावका धारी है तथा (गुणसमिदिदोवसेवी) गुणोंके समूहोंको रखनेवाला है।