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२९२] श्रीप्रवचनसारटोका ।
शास्त्रोंमें छः अनायतनोंकी संगति मना की है, निनसे यथार्थ वीतराग धर्म न पाइये, ऐसे देव, गुरु, शास्त्र और उनके भक्तगण हैं।. मोक्षमार्गके प्रकरणमें संगति उन हीकी हितकारी है जो सुदेव, सुगुरु व सुशास्त्र हैं तथा उनके भक्त श्रद्धावान श्रावक हैं।
पं० मेघावी धर्मसंग्रहश्रावकाचारमें कहते हैं--- कुदेवलिंगशास्त्राणां तन्छितां च भयादितः । षष्णां समाभयो यत्स्यात्तान्यायतनानि पट् ॥ ४४ ॥
भावार्थ-अयथार्थ देव, गुरु, शास्त्र तथा उनके सेवकोंका इन छहोंका आश्रय भय आदि कारणोंसे करना है सो छः अनायतन सेवा है। पंडित आशाधर अनागारधर्मामृतमें कहते हैं
मुद्रा सांव्यवहारिकों विजगतोवन्धामपोद्याहतीं। वामां केचिदहंयवो व्यवहरन्त्यन्ये वहिस्तां श्रिताः ॥ लोकं भूतवदाविशन्त्यवशिनस्तच्छायया चापरे ।। म्लेच्छन्तोह तकैस्त्रिधा परिचयं पुंदेहमोहैस्त्यज ॥ १६ ॥
भावार्थ-इस जगतमें कोई २ तापसी आदि ग्रहण करने योग्य व तीन लोकमें वन्दनीय ऐसी अहंतकी नग्न मुद्राको छोड़कर अहंकारी हो अन्य मिथ्या भेपोंको धारण करने हैं, दूसरे कोई जैन मुनिका बाहरी चिन्ह धार करके अपनी इंद्रियोंको व मनको न वशमें किये हुए भूत पिशाचके समान लोकमें घूमते हैं । दूसरे कोई अरहंतभेयकी छायाके द्वारा म्लेच्छोंके समान आचरण करते हैं अर्थात् लोकविरुद्ध शास्त्रविरुद्ध आचरण करते हैं, मठादिमें रहते हैं। इसलिये हे भव्य ! तू मिथ्यादर्शनके स्थान इन तीनों प्रकारके मिथ्यातियोंके साथ अपना परिचय मन वचन कायसे छोड़।
और भी संगतिका निषेध करते हैं