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तृतीय खण्ड ।
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भावार्थ - इस गाथामें आचार्य यह बताते हैं कि इस जगतमें पापबन्धके कारण स्पर्शनादि पांच इंद्रियोंकी इच्छाएं व उनके निमित्त अनेक पदार्थोंका राग व उनका भोग है तथा क्रोध; मान, माया, लोभ चार कपाय हैं; इस बातको बालगोपाल सब जानते हैं । इन्हींके आधीन संसारके जीव पापकर्मोंको बांधकर संमार में दुःख उठाते हैं । तथा यह बात भी बुद्धिमें बराबर आने लायक है कि जो इन विषयकपायों के सर्वथा त्यागी हैं वे ही पूजने योग्य देव व गुरु हो सक्ते हैं, तथा वही धर्म है जो विषयकषायोंसे छुड़ाने और वही शास्त्र है जिसमें इन विषय कषायोंके त्यागनेका उपदेश' हो । संसार विषय कषायरूप हैं व मुक्ति विषय कषायोंसे रहित परम निस्टहभाव व कषाय रहित है । इसलिये जिनके स्वरूप में यह मोक्षतत्व झलक रहा हो वे ही अपने भक्तों को अपना आदर्श बताकर संसारसे तरजानेमें निमित्त होसते हैं । इसलिये उनहीका शरण ग्रहण करने योग्य है, परन्तु जो देव या गुरु संसारमें आशक्त हैं, इंद्रियों की चाह में फंसकर विषयभोग करते हैं व अपनी प्रतिष्ठा कराने में लवलीन हैं, अपनेसे विरुद्ध व्यक्ति पर क्रोध करनेवाले हैं ऐसे देव, गुरु स्वयं संसार में आशक्त हैं अतः इनकी भक्ति करनेवाले व इनको दान करनेवाले किस तरह उनकी संगतिसे वीतराग धर्मको पासक्ते हैं ? अर्थात् किसी भी तरह नहीं पासते । और न संसारसे कभी मुक्ति पासते हैं । इसलिये ऐसे कारणोंका सम्बन्ध नहीं मिलाना चाहिये जिससे संसार बढ़े, किन्तु ऐसे कारण मिलाने चाहिये जिनसे संसारके दुःखोंसे छूटकर यह आत्मा निज स्वाधीन सुखका विलासी हो जावे ।