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श्रीप्रवचनसारटोका। ये मिथ्यादृष्टयो. जीवाः सशिनोऽसंजिनोऽपवा । । व्यंतरास्ते प्रजायन्ते तथा भवनवासिनः ॥ १६२ . . संख्यातीतायुषो मास्तिर्यञ्चश्वाप्यसदृशः। उत्कृष्टास्तापसाश्चैव यान्ति ज्योतिष्कदेवताम् ॥ १६३ ॥ .
भावार्थ-जो मिथ्यादृष्टी जीव मनसहित हैं यामनरहित हैं वे भी कुछ शुभ भावोंसे मरकर व्यंतर या भवनवासी होजाते हैं तथा मिथ्यादृष्टि भोगभूमिया'मनुप्य या तिथंच या ज्योतिषी देव होते हैं।
___ अभिप्राय यही है कि मोक्षमार्ग तो यथार्थ ज्ञानी पात्रोंकी ही भक्तिसे प्राप्त होगा, तथापि जहां जितनी मंद कषायता है उतना वहां पुण्यका बंध है ।। ७८ ॥
उत्थानिका-आगे इसही अर्थको दूसरे प्रकारसे दृढ़ करते हैंजदि ते विसयकसाया पावत्ति-परूविदा व सत्थेसु । कह ते तप्पडिबद्धा पुरिसा णित्थारगा होति ॥ ७१ ॥ यदि ते विषयकषायाः पापमिति प्ररूपिता वा शास्त्रेषु । कथं ते तत्प्रतिवद्धाः पुरुषा निस्तारका भवन्ति ।। ७६ ।।
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(जदि) यदि (ते विसयकसाया) वे इंद्रियोंके विषय तथा क्रोधादि कषाय (पावत्ति) पाप रूप हैं ऐसे (सत्थेसु) शास्त्रोंमें (परूविदो) कह गए. हैं (वा कह) तो किस तरह (तप्पडिवहा) उन विषय कषायोंमें सम्बन्ध रखनेवाले (ने पुरिसा) वे अल्पज्ञानी पुरुष (णित्थारगा) अपने भक्तोंको संसारसे तारनेवाले (होंति ) हो सक्ते हैं।
विशेषार्थ-विषय और कषाय: पापरूप हैं इसलिये उनके धारणेवाले पुरुष भी पापरूप ही हैं। तब वे अपने भकोंके व दातारोंके गस्तवमें पुण्यके नाश करनेवाले हैं।