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श्रीप्रवचनसारटीका ।
विशेषार्थ - जो पुरुष सर्व पापोंसे रहित है, सर्व धर्मात्माओं में समान दृष्टि रखनेवाला है तथा गुणसमुदायका सेवनेवाला है और आप स्वयं मोक्षमार्गी होकर दूसरोंके लिये पुण्यकी प्राप्तिका कारण है, ऐसा ही महात्मा सम्यग्दर्शन ज्ञान चात्रिकी एकतारूप निश्रय मोक्षमार्गका पात्र होता है ।
भावार्थ - इस गाथामें आचायेने भक्ति करने योग्य व संसार तारक उत्तम पात्रका स्वरूप बताया है। उसके लिये तीन विशेषण कहे हैं (१) संसारमें विषय कपाय ही पाप हैं, जिनको इससे पहली गाथामें कह चुके हैं। जो महात्मा इंद्रियोंकी चाहको छोड़कर जितेन्द्री होगए हों और क्रोधादि कपोयोंके विजयी हों वे ही साधु उपरतपाप हैं। (२) जिसका किसी भी धर्मात्मा साधु या श्रावककी तरफ राग, द्वेष या ईर्षाभाव न हो- सर्वमें धर्म सामान्य विद्यमान है, इस कारण सर्व धर्मात्माओं में परम समताभावका धारी हो (३) जो साधुके अट्ठाईस मूलगुणोंका तथा यथासंभव उत्तर गुणोंका पालनेवाला हो । वास्तवमें जो गुणवान, वीतरागी व निश्चय व्यवहार रत्नत्रयके सेचनेवाले हैं वे ही यथार्थ मोक्षमार्गके साधक हैं। ऐसे उत्तम पात्रोंकी सेवा अवश्य भक्तोंको मोक्षमार्गकी ओर लगानेवाली है तथा उनको महान पुण्य-बंध करानेवाली है। उत्तम पात्रकी प्रशंसा श्री कुलभद्र आचार्यने सारसमुच्चयमें की है जैसे
संगादिरहिता धीरा रागादिमलवर्जिताः । शान्ता दान्तास्तपोभूषा मुक्तिकांक्षणतत्पराः ॥ १६६ ॥ मनोवाक्काययोगेषु प्रणिधानपरायणाः ।
वृत्ताच्या ध्यानसम्पन्नास्ते पात्र करुणापराः ॥ १६७ ॥