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तृतीय खण्ड ।
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अन्वय सहित सामान्यार्थ - (छदुमत्थविहिदवत्थसु) अल्प ज्ञानियोंके द्वारा कल्पित देव गुरु शास्त्र धर्मादि पदार्थों में ( वदणियमज्झयणझाणदाणरदो) व्रत, नियम, पठनपाठन, ध्यान तथा दानमें रागी पुरुष (अपुणभावं) अपुनर्भव अर्थात् मोक्षको ( ण लहदि ) नहीं प्राप्त कर सक्ता है, किन्तु ( सादप्पगं भावं ) सातामई अबस्थाको अर्थात् सातावेदनीके उदयसे देव या मनुष्यपर्यायको (लहदि) प्राप्त कर सक्ता है ।
विशेपार्थ - जो कोई निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्गको नहीं जानते हैं केवल पुण्यकर्मको ही मुक्तिका कारण कहते हैं उनको यहां छन्नस्थ या अल्पज्ञानी कहना चाहिये न कि गणधरदेव आदि . ऋषिगण । इन अल्पज्ञानियों अर्थात् मिथ्याज्ञानियोंके द्वारा - जो शुद्धात्मा यथार्थ उपदेशको नहीं देसते ऐसे - जो मनोक्त देव, गुरु, शास्त्र, धर्म क्रियाकांड आदि स्थापित किये जाते हैं उनको छद्मस्थ विहितवस्तु कहते हैं । ऐसे अयथार्थ कल्पित पात्रोंके सम्बन्धसे जो व्रत, नियम, पठनपाठन, दान आदि शुभ कार्य जो पुरुष करता है वह कार्य यद्यपि शुद्धात्माके अनुकूल नहीं होता है और इसी लिये मोक्षका कारण नहीं होता है तथापि उससे वह देव या मनुष्यपना पासक्ता है ।
भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने निष्पक्षभावसे यह व्याख्यान किया है कि जैसा कारण या निमित्त होता है वैसा उसका फल होता है । निश्चयधर्म तो स्याद्वादनयके द्वारा निर्णय किये हुए सामान्य विशेष गुण पर्यायके समुदायरूप अपने ही शुद्धात्माके स्वरूपका श्रद्धान, ज्ञान तथा अनुभवरूप निर्विकल्प समाधिभाव