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२८०] श्रीप्रवचनसारटोका।
पं० मेधावीकृत धर्मसंग्रहश्रावकाचारमें सुपात्र, कुपात्र व अपात्रके सम्बन्धमें लिखा है:
साधुः स्यादुत्तमं पात्र मध्यमं देशसंयमी। । सम्यग्दर्शनस शुद्धो व्रतहीनो जघन्यकम् ॥ ११ ॥ उत्तमादिसुपात्राणां दानाद् भोगभुवनिधा । लभ्यन्ते गृहिणा मिथ्याद्शा सम्यग्दृशाऽव्ययः ॥ १२ ॥ अणुव्रतादिसम्पन्नं कुपात्र दर्शनोज्झितम् । तहानेनाचते दाता कुभोगभूभवं सुखम् ॥ ११७ ॥ अपात्रमाहुराचार्याः सम्यक्तवतवर्जितम् । तहानं निष्फलं प्रोक्तं सूपरक्षेत्रवीजवत् ॥ ११ ॥
भावाथ-उत्तम पात्र साधु हैं, मध्यम देशव्रती श्रावक है, व्रत रहित सम्यग्दृष्टी जघन्य पात्र हैं । इन उत्तम मध्यम जघन्य सुपात्रोंको दान देनेसे जो गृहस्थी मिथ्याटी हैं वे कमसे उत्तम, मध्यम, जघन्य भोगभूमिको पाते हैं और यदि दातारं सम्यग्दृष्टी हो तो परम्पराय मोक्ष पाते हैं । जो अणुव्रत व महाव्रत आदि सहित हों, परंतु सम्यग्दर्शन रहित हों वे कुपात्र हैं । उनको दान देनेसे कुभोग भूमिका सुख प्राप्त होता है । जो श्रद्धा व व्रत दोनोंसे शून्य हैं उनको आचार्योंने अपात्र कहा है, उनको भक्तिसे दान देना वैमा ही निर्फल है जैसे ऊसर क्षेत्रमें वीन बोना ॥ ७६ ॥ ___उत्थानिका-आगे इसीको दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि कारणकी विपरीततासे फल भी उल्टा होता है--
छदुमत्थविहिदवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो। ण लहदि अपुणब्भावं भावं सादप्पगं लहदि ॥ ७७ ॥ छास्थविहितवस्तुषु व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरतः। न लभते अपुनर्भावं भावं सातात्मकं लभते ॥ ७॥