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श्रीप्रवचनसारटीका ।
है । ऐसे भाव के लिये अपना आत्मा ही शरण है। आत्माका स्वरूप भी जैसा सर्वज्ञ जिनेन्द्रभगवानने बताया है वही सच्चास्वरूप है । इस सच्चे स्वभावमें श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप जो भाव है वही यथार्थ मोक्षमार्ग है। ऐसे मोक्षमार्गका सेंवक अवश्य उसी भवसे या कुछ भव धारकर मोक्ष प्राप्त कर सक्ता है । इसी तरह व्यवहार धर्म भी यथार्थ वही है जो सच्चे शुद्ध आत्माके स्वरूपके श्रद्धान ज्ञान आचरण में सहकारी हो । सर्वज्ञ भगवानने इसी हेतुसे निथ साधु-माग और सग्रन्थ श्रावकका मार्ग बताया है । जिनमें विकल्प सहित या विचार सहित अवस्थामें अरहंत और सिद्धको देव मानके भजन पूजन करना तथा आचार्य, उपाध्याय और साधुको गुरु मानके भक्ति करना तथा सर्वज्ञके उपदेशके अनुसार साधुओंके - रचे हुए शास्त्रोंको शास्त्र जानकर उनका पठनपाठन करना और शास्त्रमें वर्णन किया धर्माचरण यथार्थ आचरण है ऐसा जानकर साधन करना, ऐसा उपदेश दिया है ।
इस उपदेशमें जो स्वभाव अरहंत व सिद्ध भगवानका बताया है वही स्वभाव निश्चयसे हरएक आत्माका है यह भी दिखलाया है । इसी लिये विचारसहित अवस्थामें ऐसे अरहंत सिद्धकी भक्ति अपने आत्माकी ही भक्ति है और यह भक्ति शुद्धात्मानुभवमें पहुंचानेके लिये निमित्त कारण हो सक्ती है । गुरु वे ही हैं जो ऐसे देवोंको मानें व यथार्थ शुद्धात्माके अनुभवका अभ्यास करें । शास्त्र ही हैं जिनमें इन्हींका यथार्थ स्वरूप है । धर्माचरण वही है जो इसी प्रयोजनको सिद्ध करे ।
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मुनिका चारित्र साम्यभावरूप है, वीतराग रससे सज्जित है,