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श्रीप्रवचनसारटीका ।
पूजाभक्ति उसी तरह गृहकार्योंके द्वारा एकत्र किये हुए पाप कर्मको धो देती है जिस तरह जल रुधिरके मलको धो देता है । साधुओं को नमस्कार करनेसे उच्च गोत्र, दान करनेसे भोग, उपासना करने से प्रतिष्टा, भक्ति करनेसे सुन्दर रूप तथा स्तवन करनेसे कीर्तिका लाभ होता है ।
सुभाषित रत्नसंदोह में स्वामी अमितिगति साधुओं को दानो
पकारके लिये कहते हैं ---
यो जोवानां जनकसदृशः सत्यवाग्दत्तभोजी | सप्रेमस्त्रीनयनविशिखाभिन्नचित्तः स्थिरात्मा || द्वेधा ग्रन्धादुपरममनाः सर्वथा निर्जिताक्षो । दातुं पात्र व्रतपतिममुं वर्यमाहुर्जिनेन्द्राः ॥ ४८५ ॥ भावार्थ - जो सर्व प्राणियों की रक्षामें पिताके समान है, सत्यवादी हैं, जो भिक्षामें दिया जाय उसीको भोगनेवाला है, प्रेमसहित स्त्रीके नयनके कटाक्षोंसे जिसका मन भिदता नहीं है, जो दृढ़ भावका धारी है, अंतरंग परिग्रहसे ममतारहित है तथा जो सर्वथा इंद्रियों को जीतनेवाला है ऐसे व्रतोंके स्वामी मुनि महाराजको दान देना जिनेन्द्रोंने उत्तम पात्रदान कहा है ।
गृहस्थोंका मुख्य धर्म दान और परोपकार है ।
इस तरह शुभोपयोगी साधुओंकी शुभोपयोग सम्बन्धी क्रियाके कथनकी मुख्यतासे आठ गाथाओंके द्वारा दूसरा स्थल पूर्ण हुआ ॥ ७५ ॥
इसके आगे आठ गाथाओं तक पात्र अपात्रकी परीक्षाकी मुख्यतासे व्याख्यान करते हैं---