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तृतीय खण्ड। [२७५ इसीसे गृहस्थोंका मुख्य कर्तव्य है कि देवपूजा, गुरुभक्ति वैयावृत्य, परोपकार, दान आदि करके अपने उपयोगको अशुभ ध्यानोंसे बचायें और शुभध्यानमें लगायें। ये गृहस्थ सम्यक्तके प्रभावसे अतिशयकारी पुण्य बांध उत्तम देवादि पदवियोंमें कुछ काल भ्रमणकर परम्पराय अवश्य मोक्षके उत्तम सुखका लाभ करते हैं। साधुगण उसी जन्मसे भी मोक्ष जासक्ते हैं अथवा परम्पराय मोक्षका लाभ कर सक्ते हैं।
वेयावृत्य करना गृहस्थोंका मुख्य धर्म है। चार शिक्षाबतोंमें एक शिक्षाव्रत है। श्री समंतभद्र आचार्यने रत्नकरंडश्रावकाचारमें
दानं वैयात्त्य धर्माय तपोधनाय गुणनिधये । अनपेक्षितोपचारोपक्रियमग्रहाय विभवेन ॥ १११ ॥ व्यापत्ति व्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् ।। वैयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयोमनाम् ॥ ११२ ॥ गृहकर्मणापि निचितं कर्म विमाटि खलु गृहविमुक्तानां । अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि ॥ ११४ ॥ उच्चैर्गोत्रं प्रणते गो दानादुपासनात्पूजा । भक्तेः सुन्दररूपं स्तवनात्कोतिस्तपोनिधिषु ॥ ११५॥
भावार्थ-गुणसमुद्र धर्मरूप गृहत्यागी तपोधनको अपनी शक्तिरूप विना किसी इच्छाके दान देना व उनकी सेवा करनी सो वैयावृत्य है। ___संयमियोंके गुणोंमें प्रेम करके उनके ऊपर आई हुई आपत्तिको दूर करना, उनके चरणोंको दावना, इत्यादि अन्य और भी । करने योग्य उपकार करना सो वैयावृत्य है। गृहरहित आतेथियोंकी