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२७४ ] श्रीप्रवचनसारटोका। हर तरहसे सेवा करना व अन्य शुभ धर्मका अनुष्ठान साधुओंके लिये गौण है किन्तु गृहस्थोंके लिये मुख्य है । साधुओंके मुख्यता 'शुद्धोपयोगमें रमण करनेकी है, किन्तु जब उसमें उपयोग न जोड़ सकनेके कारण शुभोपयोगमें आते हैं तब स्वाध्याय व मननमें अपना काल विताते हैं। उस समय यदि किसी साधुको श्रम व रोग आदिके कष्ठसे पीड़ित देखते हैं तव आप उनको धर्मोपदेश देकर व शरीर मर्दन आदि करके उनकी सेवा कर लेते हैं। साधु गृहस्थ सम्बन्धी
आरंभ न्हीं कर सक्ता है; परन्तु गृहस्थोंको आरंभका त्याग नहीं है-वे योग्य भोजन पान औषधि आदिसे भली प्रकार सेवा कर सक्ते हैं, कमंडलमें जल न हो लाकर दे सक्ते हैं । इसलिये गृहस्थोंके लिये साधु सेवा आदि परोपकार करना मुख्य है, क्योंकि वे अपने धनादिके बलसे नाना प्रकार उपाय करके परोपकाररूम वर्तन करते हैं । साधुओंके जब शुद्धोपयोगकी मुख्यता है तव गृहस्थोंके लिये शुभोपयोगकी मुख्यता है। जैसे साधुओंके लिये शुभोपयोग गौण है वैसे गृहस्थोंके लिये शुद्धोपयोग गौण है । यद्यपि निश्चय व्यवहार रत्नत्रयका श्रद्धान और ज्ञान साधु और गृहस्थ दोनोंको होता है तथापि चारित्रमें बड़ा अंतर है। साधुओंके पास न परिग्रह है न उस सम्बन्धी आरंभ है, वे निरंतर सामायिक भावमें ही रहते हैं, कभी कभी उपयोगकी चंचलतासे उनको शुभोपयोगमें आना पड़ता है । जबकि गृहस्थी लोगोंको अनेक आरंभादि काम करने पड़ते हैं जिससे उनके आर्त रौद्रध्यान विशेष होता है, इसलिये उपयोग शुद्ध स्वरूपके ध्यानमें बहुत कम लगता है. परन्त शभोपयोग रूप धर्ममें विशेष लगता है।