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तृतीय खण्ड |
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उत्थानका - प्रथम ही यह दिखलाते हैं कि पात्रकी विशेपतासे शुभोपयोगीको फलकी विशेषता होती है
रागो पत्थभूदो वत्युविसेसेण फलदि विवरीं । णाणा भूमिगदाणि हि वीयाणिव सस्सकालम्पि ॥ ७६ ॥ रामः प्रशस्तभूतो वस्तुविशेषेण फलति विपरीतं । नानाभूमिगतानि हि वोजानीव सस्यकाले ॥ ७६ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ - (पसत्थभूदो रागो) धर्मानुराग रूप दान पूजादिका प्रेम (वत्युविसेसेण) पात्रकी विशेषतासे (विवरीदं) भिन्न भिन्न रूप ( सस्सकालम्मि ) धान्यकी उत्पत्तिके कालमें ( णाणाभूमिगदाणि) नाना प्रकारकी पृथ्वियों में प्राप्त (वीयाणिव हि ) बीजोंके समान निश्चयसे ( फलदि ) फलता है |
विशेषार्थ - जैसे ऋतुकालमें तरह तरह की भूमियों में वोए हुए चीज जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट भूमिके निमित्तसे वे ही बीज भिन्न २ प्रकारकें फर्लोको पैदा करते हैं, तैसे ही यह बीजरूप शुभोपयोग भूमिके समान जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट पात्रोंके भेदसे भिन्नर फलको देता है । इस कथनसे यह भी सिद्ध हुआ कि यदि सम्यग्दर्शन पूर्वक शुभोपयोग होता है तो मुख्यतासे पुण्यबन्ध होता है परन्तु परम्परा वह निर्वाणका कारण है । यदि सम्यग्दर्शन रहित होता है तो मात्र पुण्यवन्धको ही करता है ।
भावार्थ - इस गाथामें शुभोपयोगका फल एकरूप नहीं होता है ऐसा दिखलाया है। जैसे गेहूंका बीज बढ़िया जमीनमें बोया जावे. तो बढ़िया गेहूं पैदा होता है, मध्यम भूमिमें बोया जावे तो मध्यम जातिका गेहूं पैदा होता है और जो भूमि जघन्य हो तो जघन्य