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तृतीय खण्ड। कोई साधु या साधु समुदाय यदि रोग आदि वेदनासे पीड़ित हो तो उस समय उनका अपनी शक्तिके अनुसार उपाय करना उसे वैय्यावृत्य कहते हैं ।। ७३ ॥
उत्थानिका-आगे उपदेश करते हैं कि साधुओंकी वैय्यावृत्यके वास्ते शुभोपयोगी साधुओंको लौकिकननोंके साथ भाषण करनेका निषेध नहीं है
वेज्जावञ्चणिमित्तं गिलाणगुरुवालबुड्ढसमणाणं । लोगिगजणसंभासा ण णिदिदा वा मुहोवजुदा ।। ७४ ।। वैयावृत्त्यनिमित्तं ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमणानां । लौकिकजनसंभाषा न निन्दिता वा शुभोपयुता ॥ ७४ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(वा) अथवा (गिलाणगुरुवाल बुड्ढसमणाणं ) रोगी मुनि, पुज्य मुनि, वालक मुनि तथा वृद्धमुनिकी (वेजावच्चणिमित्तं ) वैय्याव्रतके लिये (सहोवजुदा ) शुभोपयोग सहित ( लोगिगजणसंभासा ) लौकिक जनोंके साथ भाषण करना (गिदिदा ण) निपिद्ध नहीं है।
विशेपार्थ:-जब कोई भी शुभोपयोग सहित आचार्य सरागचारित्ररूप शुभोपयोगके धारी साधुओंकी अथवा वीतराग चारित्ररूप शुद्धोपयोगधारी साधुओंकी वैय्यावृत्य करता है उस समय उस वैय्यावृत्यके प्रयोजनसे लौकिकजनोंके साथ संभाषण भी करता है। शेषकालमें नहीं, यह भाव है।
भावार्थ-इस गाथाका यह भाव झलकता है कि साधु महाराज अन्य किसी रोगी व वृद्ध व अशक्त साधुकी वैय्यावृत्य करते हुए ऐसी सेवा नहीं कर सक्ते हैं जिसमें अपने संयमका घात हो