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२७०.] श्रीप्रवचनसारटोका। व्रतको न तौड़े । संयमका भंग होनेपर फिर इसका मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। शरीर यदि छूट जायगा और संयम बना रहेगा तो ऐसी भी अवस्था आजायगी कि कभी फिर यह शरीर ही न धारण हो और यह आत्मा सदाके लिये मुक्त हो जावे, इत्यादि । उपदेशरूपी अमृत पिलाकर साधुको तृप्त करे जिससे उसके भूख प्यासकी चिंता न होकर धर्मध्यानकी ही भावना बनी रहे । यदि कोई साधुको दूरसे मार्गपर चलकर आनेसे थकन चढ़ गई हो अथवा उपवासोंकी गर्मीसे उसका थका हुआ शरीर दिखलाई पड़े तो अन्य साधुका कर्तव्य है कि उसका शरीर इस तरह दाबदें कि उसकी सर थकन दूर हो जाये । शरीरके मसलनेसे अशुद्धवायु निकल जाती है और शरीर ताना हो जाता है। रोग, भूख, प्यास वा श्रम इन कारणोंके होनेपर ही दूसरे साधुका वैय्यावृत्य करना चाहिये जब यह अवसर न हो तव अपने शुद्धोपयोगमें लीन रहना चाहिये अथवा शास्त्र मननमें उपयोगको रमाना चाहिये ।
श्री अमृतचंद्र सरिने तत्वार्थसारमें वैय्यावृत्यका यही खरूप दिखाया है
सूर्युपाध्यायसाधूनां शैक्षग्लानतपस्विनाम् ॥ कुलसंघमनोज्ञानां वैयावृत्त्यं गणस्य च ॥ २७ ॥ ध्याध्याद्युपनिपातेऽपि तेषां सम्यविधीयते । खशफ्त्या यत्प्रतीकारो वैयावृत्त्यं तदुच्यते ॥ २८ ॥
भावार्थ-आचार्य, उपाध्याय, दीर्घकाल दीक्षित साधु, नवीन दीक्षित शिष्य, रोगी मुनि, घोर तपस्वी, एक ही आचार्य के शिष्य कुल मुनि, मुनि संघ, एकगणके मुनि वा अतिप्रसिद्ध मुनि इत्यादि