________________
तृतीय खण्ड। [२६६साधु रोगसे पीड़ित हो तब उसको उठाकर, बिठाकर, उसका मलादि हटाकर, उसको मिष्ठ उपदेश देकर उसके मनमें आर्तध्यानको पैदा नहोने देवै-उसको समझावे कि नर्क गतिमें करोड़ों रोगोंसे पीड़ित रहकर इस प्राणीने घोर वेदना सही है व पशुगतिमें असहाय होकर अनेक कष्ठ सहे हैं उसके मुकावलेमें यह रोगका कष्ठ कुछ नहीं है। रोग शरीरमें है आत्मामें नहीं है-आत्मा सदा निरोगी है। असाता वेदनीय कर्मके उदयका यह फल है। रोग अवस्थामें कर्मका फल विचारा जायगा तो धर्मध्यान रहेगा व परिणामोंमें शांति रहेगी और जो घबड़ाया जायगा तो भाव दुःखी होंगे व आर्तध्यानसे नवीन असाता कर्मका बंध पड़ेगा। इस तरह ज्ञानामृतरूपी औषधि पिलाकर उसके रोगकी आकुलताको शांत कर दे। इसी तरह भूख प्याससे पीड़ित देखकर अपने धर्मोपदेशसे उनको दृढ़ करे कि यहां जो कुछ भूख प्यासकी वेदना है वह कुछ भी नहीं है। नर्कगतिमें सागरोंपर्यंत भूख प्यासकी वेदना रहती है, परन्तु कभी भी भूख. प्यास मिटती नहीं है । उस कष्ठको यह जीव पराधीन बने सहता है । वर्तमानमें क्या कष्ठ है कुछ भी नहीं, इसलिये मनमें आकुलता न लाना चाहिये । अपनी प्रतिज्ञासे कभी शिथिल न होना चाहिये । भूख प्यास शरीरमें है आत्माका स्वभाव इनकी इच्छाओंसे रहित है। इस समय प्रिय श्रमण तुम्हें समताभाव धारणकर इस कष्टको कष्ठ न समझकर 'कर्मोदय होकर निरा हो रही है। ऐसा जानकर शांति रखनी चाहिये। साधुओंका यही कर्तव्य है कि जो प्रतिज्ञा उपवासकी व वृत्तिपरिसंख्यान तपकी धारण की है उस संयमको कभी भंग न करें। यदि शरीर भी छूट नावे तौभी अपने .