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'२६८] श्रीप्रवचनसारटोका। अंग होता है । इसलिये जिस तरह वने सच्चे मोक्षमार्गका प्रकाश
करते हैं और मिथ्या अंधकारको दूर करते हैं । ७२ ।।। - उत्थानिका-आगे कहते हैं कि किस समय साधुओंकी वैय्यावृत्य की जाती है:
रोगेण वा छुधाए तण्हणया वा समेण वा रूढं । देहा समणं साधू पडिवज्जदु आदसत्तीए ॥ ७३ ॥ रोगेण वा छुधया तृष्णया वा 'श्रमेण वा सद।। दृश्वा श्रमणं साधुः प्रतिपद्यतामात्मशक्त्या ।। ७३ ।।
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(साधू ) साधु (रोगेण) रोगसे (वा छुधाए) वा भूखसे (तण्या वा) वा प्याससे (समेण वा) वा थकनसे (रूढं) पीडित (समणं) किसी साधुको (देठ्ठा) देखकर (आदसत्तीए) अपनी शक्तिके अनुसार (पडिवजदु) उसका वैयावृत्य करे।
विशेषार्थ-जो रत्नत्रयकी भावनासे अपने आत्माको साधता है वह साधु है। ऐसा साधु किसी दूसरे श्रमणकी "जो जीवन मरण, लाभ अलाभ आदिमें समभावको रखनेवाला है, ऐसे रोगसे पीड़ित देखकर जो अनाकुलतारूप परमात्मास्वरूपसे विलक्षण आकुलताको पैदा करनेवाला है, या भूख प्याससे निर्वल जानकर या मार्गकी थकनसे वा मास पक्ष आदि उपवासकी गर्मीसे असमर्थ समझकर" अपनी शक्तिके अनुसार उसकी सेवा करे। तात्पर्य यह है कि अपने आत्माकी भावनाके घातक रोग आदिके हो जानेपर दूसरे साधुका कर्तव्य है कि दुःखित साधुकी सेवा करे। शेषकालमें अपना चारित्र पाले।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने और भी स्पष्ट कर दिया है कि एक साधु दूसरे साधुका किस समय धैय्यावृत्य करे । जब कोई