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श्रीप्रवचनसारटीका ।
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अर्थात् अपनेको छःकाय प्राणियोंके घातका आरम्भ करना पड़े परन्तु दूसरे श्रावक गृहस्थोंको उदासीनभावसे व इस भाव से कि मुनि संघकी रक्षा हो व इनका संयम उत्तम प्रकारसे पालन हो ऐसा उपदेश देसक्ते हैं कि श्रावकों का कर्तव्य है कि गुरुकी सेवा करेंविना श्रावकों के आलम्बनके साधुका चारित्र नहीं पाला जासक्ता है । इतना उपदेश देने हीसे श्रावकलोग अपने कर्तव्यमें दृढ़ हो जाते हैं और भोजनपान आदि देते हुए औषधि आदि देनेका बहुत अच्छी तरह ध्यान रखते हैं । अथवा श्रावक लोग प्रवीण वैद्यसे परीक्षा कराते हैं । तथा कोई वस्तु शरीरमें मर्दन करने योग्य जानकर उसका मर्दन करते हैं । अथवा दूसरे साधु किसी वैद्यसे संभाषण करके रोगका निर्णय कर सक्ते हैं। यहां यही भाव है कि वैयावृत्य बहुत ही आवश्यक तप है। इस तपकी सहायतामें यदि अन्य गृहस्थोंसे कुछ बात करनी पड़े तो शुभोपयोगी साधुके लिये मना नहीं है । अपने या दूसरेके विषय कषायकी पुष्टिके लिये गृहस्थोंसे बात करना मना है ।
इस तरह पांच गाथाओंके द्वारा लौकिक व्यवहारके व्याख्यानके सम्बन्धमें पहला स्थल पूर्ण हुआ ॥ ७४ ॥
उत्थानिका- आगे कहते हैं कि इस वैयावृत्य आदि रूप शुभोपयोगी क्रियाओंको तपोधनोंको गौणरूपसे करना चाहिये, परन्तु श्रावकोंको मुख्यरूपसे करना चाहियें-
एसा पराभूता संमाणं वा पुणो घरत्थाणं । 'चरिया परेति भणिदाताएव परं लहादि सोक्खं ॥ ७६ ॥