________________
तृतीय खण्ड।
[२६५ जैनानां निरपेक्ष सागारानगारचर्यायुक्तानां । ' अनुकम्पायोपकारं करोतु लेपो यद्यप्यल्पः ॥ ७२ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(यदिवियप्पं लेवो) यद्यपि अल्प बंध होता है तथापि शुभोपयोगी मुनि (सागारणगारचरियजुत्ताणं) श्रावक तथा मुनिके आचरणसे युक्त (जोण्हाण) जैन धर्म धारियोंका (णिरवेक्खं) विना किसी इच्छाके (अणुकंपयोवयारं) दया सहित उपकार (कुव्वदि) करै।
विशेषार्थ-यद्यपि शुभ कार्योंमें भी कर्म बंध है तथापि शुभोपयोगी पुरुषको उचित है कि वह निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्गपर चलनेवाले श्रावकोंकी तथा मुनियोंकी सेवा व उनके साथ दयापूर्वक धर्मप्रेम या उपकार शुद्धात्माकी भावनाको विनाश करनेवाले भावोंसे रहित होकर अर्थात् अपनी प्रसिद्धि, पूजा, लामकी इच्छा न करके करे।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने साधुको शिक्षा दी है कि उसको परोपकारी होना चाहिये। जब वह शुद्धोपयोगमें नहीं ठहर सक्ता है तब उसको अवश्य शुभोपयोगमें वर्तन करना पड़ता है। पांच परमेष्ठीकी भक्ति करना जैसे शुभोपयोग है वैसे ही संघकी वैय्यावृत्य भी शुभोपयोग है। जिनको धर्मानुराग होता है उनको धर्मधारियोंसे प्रेम होता ही है, क्योंकि धर्मका आधार 'धर्मात्मा ही हैं । इसलिये शुभोपयोगी साधुका मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका इन चारों ही पर बड़ा ही प्रेम होता है तथा उनके कष्ठको देख कर बड़ी भारी अनुकम्पा हृदयमें पैदा हो जाती है, तब वह साधु अपने अहिंसादि व्रतोंकी रक्षा