________________
२६४ ]
श्रीप्रवचनसारटोका ।
वह उस समयसे अपनेको श्रावक मानेगा और परोपकारार्थ अपनी हानि कर लेगा । तथापि इस दोपके निवारणके लिये प्रायश्चित लेकर फिर मुनिके चारित्रको यथायोग्य पालन करेगा | संपूर्ण हिंसाका त्यागी ही यति होता है जैसा पं० आशाघरने अनगार ध० में कहा है ।
स्फुरद्बोधो गलदन्तमोहो विपयनिःस्पृहः । हिंसादेर्विरतः कार्रन्याद्यतिः स्याच्छ्रावकोंशतः ॥ २१॥
भावार्थ - जिसके आत्मज्ञान उत्पन्न होगया है, चारित्रमोहनीयमें प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय नहीं रहा है व जो विषयोंसे अपनी इच्छा को दूर कर चुका है, ऐसा साधु सर्व हिंसादि पांच पापोंसे विरक्त होता हुआ यति होता है। यदि कोई एक देश पांच पापोंका त्यागी है तो वह श्रावक है ।
-
श्री मूलाचार पंचाचारम् अधिकारमें कहा हैपइंदियादिपाणा पंचविधावजभीरुणा सम्मं । ते खलु ण हिंसिदव्वा मणवचिकायेण सव्वत्य ॥ शा भावार्थ- पापसे भयभीत साधुको मन, वचन, कायसे पांच प्रकारके एकेंद्रियादि जीवोंकी भी कहीं भी हिंसा न करनी चाहिये । इस तरह पूर्ण अहिंसाव्रत पालना चाहिये ॥ ७१ ॥
उत्थानिका - यद्यपि परोपकार करनेमें कुछ अल्प बंध होता है, तथापि शुभोपयोगी साधुओंको धर्म संबंधी उपकार करना चाहिये, ऐसा उपदेश करते हैं
जोण्हाणं णिरवेक्खं सागारणगारचरियजुत्ताणं । अणुकंपयोवयारं कुव्वदु लेवो यदिवियप्पं ॥ ७२ ॥ ·