________________
तृतीय खण्ड।
[२६३ धर्म कार्यकी अपेक्षासे नहीं चाहता है उसके तबसे सम्यग्दर्शन ही नहीं है । मुनि व श्रावकपना तो दूर ही रहो।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने यह शिक्षा दी है कि साधुको अपने संयमका घात करके कोई परोपकार व वैयावृत्त्य नहीं करना चाहिये । वास्तवमें शुभोपयोगमें वर्तना ही साधुके लिये अपवाद मार्ग है । उत्सर्ग मार्ग तो शुद्धोपयोगमें रमना है । वही वास्तवमें भावमुनिपढ़ है। अपवाद मार्गमें लाचारीसे साधुको आना पड़ता है । उस अपवाद मागमें भी साधुको व्यवहार चारित्रसे विरुद्ध नहीं वर्तन करना चाहिये । साधुने पांच महाव्रत, पांच समिति व तीन गुप्तिके पालनेका आजन्म व्रत धारण किया है, उसको किसी प्रकारसे भंग करना उचित नहीं है। अहिंसा महाव्रतको पालते हुए छः कायोंकी विराधनाका बिलकुल त्याग होता है। इसलिये अपने व्रतोंकी रक्षा करते हुए सेवा धर्म बनाना चाहिये यही साधुका धर्म है । यदि कोई साधु वैय्या. वृत्यके लिये स्थावर या त्रस जीवोंकी हिंसा करके पानी लावे, गर्म करे, भोजन व औषधि बनावे तथा देवे तो वह उसी समयसे गृहस्थ श्रावक होजावेगा, क्योंकि गृहस्थ श्रावकोंको छः कायकी आरंभी हिंसाका त्याग नहीं है । आरम्भ करना गृहस्थोंका कार्य है न कि साधुओंका तथा वृत्तिकारके मतसे ऐसा अपनी पदवीके अयोग्य स्वच्छन्दतासे वर्तन करनेवाला सम्यग्दृष्टी भी नहीं रहता है क्योंकि उसने यथार्थ मुनिपदकी क्रियाका श्रद्धान छोड़ दिया है, परन्तु यदि श्रद्धान रखता हुआ किसी समय मुनियोंकी रक्षाके लिये श्रावकके योग्य आचरण करना पड़े तो