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२६२] श्रोप्रवचनसारटोका । ज्ञानके प्रतापसे संसारके सुखोंसे तृप्त होकर साधु निरंतर अविनाशी मोक्षमें आनंद भोगता है । इसलिये ज्ञानदान देनेवाला साधु अभयदानादि करनेवाले दातारोंके मध्यमें इसी तरह शोभता है जिस तरह सूर्य, चंद्र व तारादि ग्रहोंको तिरस्कार करता हुआ चमकता है।
इसलिये शुभोपयोगी साधु ज्ञान दान द्वारा बहुत बड़ा उपकार करते हैं ॥ ७० ॥ ___ उत्थानिका-आगे उपदेश करने हैं कि वेयावृत्यके समयमें भी अपने संयमका धात साधुको कभी नहीं करना चाहिये
जदि कुणदि कायखेद वैज्जावच्चत्थमुज्जदो समणो। ण हवदि हबदि अगारीधम्मो सोसावयाण से॥ ७ ॥ यदि करोति कायखेदं वैयावृत्यर्थमुद्यतः श्रमणः । न भवति भवत्यगारी धर्मः स श्रावकाणां स्यात् ॥ ७१ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(जदि) यदि (वेजावञ्चत्थमुज्जदों) वैयावृत्त्यके लिये उद्यम करता हुआ साधु (कायखेदं कुणदि) षटकायके जीवोंकी विराधना करता है तो (समणो ण हबदि) वह साधु नहीं है, (अगारी हवदि) वह गृहस्थ होजाता है; क्योंकि (सो सावयाणं धम्मो से) षट्कायके जीवोंका आरम्भ श्रावकोंका कार्य है, साधुओंका धर्म नहीं है।
विशेषार्थ-यहां यह तात्पर्य है कि जो कोई अपने शरीरकी पुष्टिके लिये वा शिप्यादिकोंके मोहमें पड़कर उनके लिये पाप कर्मकी या हिंसा कर्मकी इच्छा नहीं करता है उसीके यह व्याख्यान शोभनीक है; परन्तु यदि वह अपने व दसरोंके लिये पापमई कर्मकी इच्छा करता है, यावृत्य आदि अपनी अवस्थाके योग्य