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तृतीय खण्ड ।
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णामों में अशुभोपयोगको न लाकर शुभोपयोगी मुनि परम उपकारी होते हैं, वे श्रावक श्राविकाओं को भी धर्ममार्गपर आरूढ़ होने के लिये उपदेश देते रहते हैं व उनको उनके कर्तव्य सुझाते रहते हैं । कहीं किसी राजाको अन्यायी जानकर उसको उदासीन भावसे धर्म व न्यायके अनुसार चलनेका उपदेश करते हैं ।
निरारम्भ रीति से अपने आत्मीक शुद्ध चारित्रकी तथा व्यवहार चारित्रकी रक्षा करते हुए साधुगण परोपकार में प्रवर्तते हैं । यही शुभोपयोगी साधुओंके लिये परोपकारका नियम है। पं० आशाधर अनगार ध० में कहते हैं
चित्तमन्वेति वाग् येषां वाचमन्वेति च क्रिया । स्वपरानुग्रहपराः सन्तस्ते विरलाः कलौ ॥ २० ॥
भावार्थ- ऐसे स्वपर उपकारी साधु इस पंचम कालमें बहुत कम हैं जो मन, वचन, कायको सरल रखते हुए वर्तते हैं । साधु महाराज जिस ज्ञान दानको करते हैं उसकी महिमा इस तरह वहीं कही है
दत्ताच्छ किलैति भिक्षुरभयाश तद्भवाद् भेषजादारोगान्तर संभवादनतश्चोत्कर्षतस्तद्दिनम् ॥ ज्ञानात्वाशुभवन्मुदो भवमुदां तृप्तोऽमृते मोदते । तदातृ ' स्तिरयन ग्रहानिव रविर्भातीतरान् ज्ञानदः ॥५३॥ भावार्थ-यदि अभयदान दिया जावे तो संयमी इसी जन्म पर्यंत सुखको पासक्ता है । यदि औषधि दान दिया जाय तो जब तक दूसरा रोग न हो तबतक निरोगी रह सक्ता है । यदि भोजन दान किया जावे तो अधिकसे अधिक उस दिन तक तृप्त रह सक्ता है, परन्तु जो ज्ञान दान किया जावे तो उस शीघ्र आनंददायक