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श्रीप्रवचनसारटोका। करता हुआ विना किसी चाहके-कि मेरी प्रसिद्धि हो व मुझे कुछ प्राप्ति हो व मेरी महिमा वढे-उस मुनि या श्रावकका अवश्य उपकार • करता है । अपने धर्मोपदेशसे तृप्त कर देता है । उनको चारित्रमें दृढ़ कर देता है, उनकी शरीरकी श्रकन मेटता है । श्रावक व श्राविकाओंको धर्ममें दृढ़ करनेके लिये साधुजन ऐसा प्रेमरस गर्भित उपदेश देते हैं जिससे उनकी श्रद्धा ठीक हो जाती है तथा वे चारित्रपर दृढ़ हो जाते हैं । कभी कहीं अजैनोंके द्वारा जैन धर्म पर आक्षेप हों तो साधुगण स्याहाद नयके द्वारा उनकी कुयुक्तियोंका खंडन कर उनके दिल पर जैन मतका प्रभाव अंकित कर देते हैं। जैसे एक दफे श्री अकलंकखामीने बौद्धोंकी कुयुक्तियोंका खण्डनकर जैनधर्मका प्रभाव स्थापित किया था। मुनिगण नित्य ही श्रावकोंको धर्मोपदेश देते हैं। इतना ही नहीं वे साधु जीव मात्रका उपकार चाहते हैं, इससे नीच ऊँच कोई भी प्राणी हो चाहे वह जैनधर्मी हो व न हो, हरएकको धर्मोपदेश दे उसके अज्ञानको मेटते हैं । वे सर्व जीव मात्रका हित चाहते हैं इससे शुभोपयोगकी दशामें वे अपनी पदवीके योग्य परका हित करनेमें सदा उद्यमी रहते हैं।
शुभोपयोगकी प्रवृत्तिमें धर्मानुराग होता है जिसके प्रतापसे वे साधु वहुत पुण्य बांधते हैं तथा अल्प पाप प्रकृतियोंका भी बंध पड़ता है-घातिया कर्म पाप कर्म हैं जिनका सदा ही बंध हुआ करता है, जबतक रागका विलकुल छेद न हो। - अल्प बंधके भयसे यदि कोई साधु शुद्धोपयोगकी मूमिकामें न-ठहरते हुए शुभोपयोगमें भी न ठहरे तो फल यह होगा कि