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तृतीय खण्ड
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क्षमा करो इस तरह क्षमाभाव कराता है । उसके पीछे निश्चय पंचाचारको और उसके साधक आचारादि चारित्र ग्रंथोंमें कहे हुए व्यवहार पंच प्रकार चारित्रको आश्रय करता है ।
परम चैतन्य मात्र निज आत्मतत्व ही सब तरहसे ग्रहण करने योग्य है ऐसी रुचि सो निश्चय सम्यग्दर्शन है, ऐसा ही ज्ञान सो निश्चयसे सम्यग्ज्ञान है, उसी निज स्वभावमें निश्चलतासे अनुभव करना सो निश्चय सम्यम्चारित्र है, सर्व परद्रव्योंकी इच्छासे रहित होना सो निश्चय तपश्चरण है तथा अपनी आत्मशक्तिको न छिपाना सो निश्चय वीर्याचार है इस तरह निश्वय पंचाचारका स्वरूप जानना चाहिये ।
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यहां जो यह व्याख्यान किया गया कि अपने बन्धु आदिके साथ क्षमा करावें सो यह कथन अति प्रसङ्ग अर्थात् अमर्यादाके निपेधके लिये है । दीक्षा लेते हुए इस बातका नियम नहीं है कि क्षमा कराए विना दीक्षा न लेवे। क्यों नियम नहीं है ? उसके लिये कहते हैं कि पहले कालमें भरत, सगर, राम, पांडवादि बहुत से राजाओंने जिनदीक्षा धारण की थी । उनके परिवारके मध्य में जब कोई भी मिध्यादृष्टि होता था तव धर्ममें उपसर्ग भी करता था तथा यदि कोई ऐसा माने कि बन्धुजनोंकी सम्मति करके पीछे तप करूँगा तो उसके मतमें अधिकतर तपश्चरण ही न होसकेगा, क्योंकि जब किसी तरहसे तप ग्रहण करते हुए यदि अपने संबंधी आदि से ममताभाव करे तब कोई तपस्वी ही नहीं होसक्का | जैसा कि कहा है :- " " जो सकलणयररज्जं पुव्वं चइऊण कुणइ य ममत्तिं । सो वरि लिंगधारी संजमसारेण णिस्सारो ॥ "