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श्रीप्रवचनसारटोका। समाधिके साधनको प्राप्त किया है और इसी समाधिकी प्राप्तिके लिये ही आपने अपनेको अंतरङ्ग और बहिरङ्ग परिग्रहत्यागरूप दोनों प्रकारके निग्रंथपनेसे शोभायमान किया ॥१॥ • उत्थानिका-आंगे जो श्रमण होनेकी इच्छा करता है उसको पहले क्षमाभाव करना चाहिये । ' उवट्टिदो होदिसो समणो ' इस आगेकी छठी गाथामें जो व्याख्यान है उसीको मनमें धारण करके पहले क्यार काम करके साधु होवेगा उसीका व्याख्यान करते हैं
आपिच्छ वंधुनगं विमोइदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं । आसिज्ज णाणदंसणचरिचतवदीरियायारम् ॥ २॥ आपृच्छय वन्धुवर्ग विमोचितो गुरुकलत्रपुत्रैः। ' आसाद्य ज्ञानदर्शनचरित्रतपोवीर्याचारम् ॥२॥
अन्वय सहित सामान्यार्थः-(बन्धुवग्गं) बन्धुओंके समूहको (आपिच्छ ) पूछकर ( गुरुकलतपुत्तेहिं ) माता पिता स्त्री पुत्रोंसे (विमोइदो) छूटता हुआ (णाणदसणचरित्ततववीरियायारम् ) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य ऐसे पांच आचारको (आसिज्ज)' आश्रय करके मुनि होता है।
दिशेपार्थ:-वह साधु होनेका इच्छक इस तरह बंधुवर्गोको समझाकर क्षमाभाव करता व कराता है कि अहो वन्धुजनों, मेरे पिता माता स्त्री पुत्रों ! मेरी आत्मामें परम भेद ज्ञानरूपी ज्योति उत्पन्न होगई है 'इससे यह मेरी आत्मा अपने ही चिदानन्दमई एक खभावरूप परमात्माको ही निश्चयनयसे अनादि कालके बन्धु वर्ग, पिता, माता, स्त्री, पुत्ररूप मानके उनहीका आश्रय करता है इसलिये आप सब मुझे छोड़ दो-मेरा मोह त्याग दो व मेरे दोषोंपर