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तृतीय खण्ड। सर्व धनधान्यादि परिग्रह त्याग नग्न दिगम्बर मुनि हो भले प्रकार चारित्रका अभ्यास करना जरूरी है। यद्यपि चारित्र निश्चयसे निन शुद्ध न्यभायमें आचरणरूप व रमनरूप है तथापि इस स्वरूपाचरण चारित्रके लिये साधुरदशीसी निराकुलता तथा निरालम्बता सहकारी कारण है । जो विना मसालेका सम्बन्ध मिलाए वस्त्रपर' रगड़ नहीं दी जासकी वैग्ने बिना व्यवहार चारित्रका संबंध मिलाए अन्नरङ्ग साम्यभावरूप चारित्र नहीं प्राप्त होसक्ता है, इसलिये आनायने मम्यग्दरी नीवको चारित्रवान होने की शिक्षा दी है।
स्वामी ममतभद्राचार्य भी अपने रत्नकरण्डश्रावकाचारमें सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका कथनकरके सम्यग्दृष्टी जीवको इस तरह चारित्र धारनेकी प्रेरणा करते हैं
मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः । राग पनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥ ४७ ॥
भावार्थ-मिथ्यात्वरूप अंधकारके दूर होनेपर सम्यग्दर्शनके लाभगे सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिको पहुंचा हुआ साधु रागद्वेपको दूर करने के लिये चारित्रको स्वीकार करता है। .. ये ही स्वामी स्वयंभूस्तोत्रमें भी साधुके परिग्रहरहित चारित्रकी प्रशमा करते हैं--- गुणाभिनन्दादभिनन्दनो भवान् दयावधू' क्षांतिसस्त्रीमशिश्रयत्। समाधितंत्ररतदुपोपपत्तये द्वयेन नैर्ग्रन्थ्यगुणेन चायुजत् ॥१६॥
भावार्थ-हे अभिनन्दननाथ ! आप आत्मीक गुणोंके धारण करनेसे सच्चे अभिनंदन हैं। आपने उस दयारूपी वहूको आश्रयमें लिया है जिसकी क्षमारूपी सखी है। आपने म्बात्म