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श्रीप्रवचनसारीका |
शुद्ध अरहंत तथा सिद्धपदकी प्राप्तिकी रुचि उत्पन्न हो - तथा सांसारिक तुच्छ पराधीन ज्ञान तथा तुच्छ पराधीन अतृप्तिकारी सुखसे अरुचि पैदा हो। फिर जिसको निजपदकी रुचि होगई है उसको द्रव्योंका यथार्थ स्वरूप बतानेके लिये दूसरे खंड में छः द्रव्योंका भले प्रकार वर्णनकर आत्मा द्रव्यको अन्य द्रव्योंसे भिन्न दर्शाया है । जिससे शिष्यको पदार्थोंका सच्चा ज्ञान हो जाये और उसके अंतरङ्गसे सांसारिक अनेक स्त्री, पुत्र, स्वामी, सेवक, मकान, वस्त्र, आभूषण आदि क्षणभंगुर अवस्थाओंसे ममत्त्व निकल जावे तथा भेद विज्ञानकी कला उसको प्राप्त होजावे जिससे वह श्रद्धान व ज्ञानमें सदा ही निज आत्माको सर्व पुढल संबंधसे रहित शुद्ध एकाकार ज्ञानानंदमय जाने और मार्ने ।
अब इस तीसरे खंड में आचार्यने उस भेदविज्ञान प्राप्त जीवको रागद्वेषकी कालिमाको धोकर शुद्ध वीतराग होनेके लिये चारित्र धारण करनेकी प्रेरणा की है, क्योंकि मात्र ज्ञान व श्रद्धान आत्माको चारित्र विना शुद्ध नहीं कर सक्ता । चारित्र ही वास्तवमें आत्माको कर्मबन्धरहित कर परमात्मपदपर पहुंचानेवाला है ।
इस गाथामें आचार्यने यही बताया है कि हे भव्य जीव.
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यदि तू संसारके सर्व आकुलतामय दुःखोंसे छूटकर स्वाधीनताका निराकुल अतींद्रिय आनन्द प्राप्त करना चाहता है तो प्रमाद छोड़कर तय्यार हो और वारवार पांच परमेष्टियोंके गुणोंको स्मरणकर उनको नमस्कार करके निर्ग्रन्थ साधु मार्गके चारित्रको स्वीकार कर, क्योंकि गृहस्थावस्थामें पूर्ण चारित्र नहीं होसक्ता और पूर्ण चारित्र विना आत्माकी पूर्ण प्राप्ति नहीं होसक्ती इसलिये,