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श्रीप्रवचनसारटोका। भावार्थ-जो पहले सर्व नगर व राज्य छोड़ करके फिर ममता करे वह मात्र भेषधारी है संयमकी अपेक्षासे सार रहित है अर्थात् संयमी नहीं है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने दीक्षा लेनेवाले सम्यग्दष्टी भव्य जीवके लिये एक मर्यादारूप यह बतलाया है कि उस समय वह स्वयं सर्व कुटुम्बादिके ममत्वसे रहित होजावे । उसके चित्तमें ऐसी कोई आकुलता न पैदा होनी चाहिये जिससे वह दीक्षा लेनेके पीछे उनकी चिंतामें पड़ जावे । इसलिये उचित है कि वह राज्य पाट, धनधान्य आदिका उचित प्रबंध करके उनका भार जिसको देना हो उसको देदे । किसीका कर्ज हो उसे भी दे देवे । अपनेसे किमीके साथ अत्याचार या अन्याय हुआ हो तो उसकी क्षमा करावे व किसीकी कोई वस्तु अन्यायसे ली हो तो उसको उसकी दे दें। यदि कोई दान धर्मके कार्योंमें धनका उपयोग करना हो तो कर देवे तथा सर्व कुटुम्बसे अपनी ममता छुड़ानेको व उनकी ममता अपनेसे व इस संसारसे छुड़ानेको उनको धर्मरस गर्मित उपदेश देकर शांत करे। ___उनको कहे कि आप सब जानते हैं कि आपका सम्बन्ध मेरे इस शरीरसे है जो एक दिन छूट जानेवाला है किन्तु . मेरी आत्मासे आपका कोई सम्बन्ध नहीं है । आत्मा अजर अमर अविनाशी है । आत्मा चैतन्य स्वरूप है । उसका निज सम्बन्ध अपने चैतन्यमई ज्ञान, दर्शन, सुख वीर्यादि गुणोंसे है । जब इस मेरी आत्माका सम्बन्ध दूसरे आत्मासे व उसके गुणोंसे नहीं है तब इसका सम्बन्ध इस शरीरसे व शरीरके सम्बन्धी आप सब बंधु