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२५८] श्रीप्रवचनसारटोका। उपकार करते हैं । वास्तवमें श्रावक व साधुका चारित्र तथा जैन धर्मकी प्रभावना शुभोपयोगी साधुओं हीके द्वारा होसक्ती है। ___ वृत्तिकारने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि शुद्धोपयोग और शुभोपयोग दोनों सम्यग्दृष्टी श्रावक तथा साधुओंके होते हैं; परंतु साधुओंके शुद्धोपयोगकी मुख्यता है व शुभोपयोगकी गौणता है जब कि श्रावकोंके शुद्धोपयोगकी गौणता तथा शुभोपयोगकी मुख्यता है। इस लिये साधु महाव्रती संयमी तथा श्रावक अणुव्रती देश संयमी कहलाते हैं ॥ ६९ ॥
उत्थानिका-आगे शुभोपयोगधारी साधुओंके जो व्यवहारकी प्रवृत्तिये होती हैं उनका नियम करते हैंउवकुणदि जोवि णिचं चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स । कायनिराधणरहिंद सोवि सरागप्पधाणो से ॥७॥
उपकरोति योपि. नित्यं चातुर्वर्णस्य श्रमणसं'घस्य । कार्यावरानरहितं सोपि सरागप्रधानः स्यात् ॥ ७॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ:-(जो वि) जो कोई (चादुव्वण्णस्स समणमंघस्स) चार प्रकार साधुसंघका ( णिच्चं ) नित्य (कायविराबणरहिदं) छःकायके प्राणियोंकी विराधना रहित (उपकुणदि) उपकार करता है (सोवि) वह साधु भी (सरागप्पधाणो से) शुभोपयोगधारियोंमें मुख्य होता है। .
विशेषार्थ-चार प्रकार संघमें ऋषि, मुनि, यति, अनगार लेने योग्य है । जैसा कहा है-" देशप्रत्यक्षवित्केवलभृदिह मुनिः स्यादपिः प्रतद्धिरारूढः श्रेणियुग्मेऽजनि यतिरनगारोऽपरः साधु-वर्गः: मा ब्रह्मा च देव परम इति ऋषिर्विक्रियाक्षीणशक्ति।