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________________ तृतीय खण्ड। [२५६ प्राप्तो बुध्यौषधीशो वियदयनपटुर्विश्ववेदी क्रमेण ।" भावार्थ-एक देश प्रत्यक्ष अर्थात अवधि मनःपर्ययज्ञानके धारी तथा केवलज्ञानी मुनि कहलाते हैं; ऋद्धि प्राप्त मुनि ऋपि कहलाते हैं, उपशम और क्षपकश्रेणिमें आरूढ़ यति कहलाते हैं तथा सामान्य साधु अनगार कहलाने हैं। ऋद्धिप्राप्त ऋषियोंके चार भेद हैं-राजऋपि, ब्रह्मऋषि, देवऋषि, परमऋपि । इनमें जो विक्रिया और अक्षीणऋद्धिके धारी हैं वे राजऋषि हैं, जो बुद्धि और औषधि ऋद्धिके धारी हैं वे ब्रह्मऋपि हैं, जो आकाशगमन ऋद्धिके धारी हैं वे देव ऋषि हैं, परमऋपि केवलज्ञानी हैं । ये चारों ही श्रमण संघ इसीलिये कहलाता है कि इन सवोंके सुख दुःख आदिके संबंधमें समताभाव रहता है । अथवा श्रमण धर्मके अनुकूल चलनेवाले श्नावक, श्राविका, मुनि, आर्यिका ऐसे भी चार प्रकार संघ है । इन चार तरहके संघका उपकार करना इस तरह योग्य है जिसमें उपकारकर्ता साधु आत्मीक भावना स्वरूप अपने ही शुद्ध चैतन्यमई निश्चय प्राणकी रक्षा करता हुआ बाह्यमें छः कायके प्राणियोंकी विराधना न करता हुआ वर्तन कर सके। ऐसा ही तपोधन धर्मानुराग रूप चारित्रके पालनेवालोंमें श्रेष्ठ होता है। ___ भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने दिखलाया है कि साधुओंको 'ऋपि मुनि यति अनगार चार तरहके साधु संघकी सेवा यथायोग्य करनी चाहिये, परन्तु अपने व्रतोंमें कोई दोष न लगाना चाहिये। ऐसा उपकार करना उनके लिये निषेध है जिससे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा त्रस इन छः प्रकारके जीवोंकी विराघना या हिंसा करनी पड़े अर्थात् वे गृहस्थोंके योग्य आरम्भ करके
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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