________________
तृतीय खण्ड।
[२५७ : भावार्थ-वैयावृत्य करनेसे इतने गुण प्रगट होते हैं१ साधुओंके गुणोंमें अपना परिणमन, २ श्रद्धानकी दृढ़ता ३, वात्सल्यकी वृद्धि, ४ भक्तिकी उत्कटता, ५ पात्रोंका लाभ (जो सेवा करता है उसको सेवा योग्य पात्र भी मिल जाते हैं), ६ रत्नत्रयकी एकता ७ तपकी वृद्धि, ८ पूजा प्रतिष्ठा, ९ धर्मतीर्थका बराबर जारी रहना, १० समाधिकी प्राप्ति, ११ तीर्थंकरकी आज्ञाका पालन, १२ संयमकी सहायता, १३ दानका भाव, १४ ग्लानिका अभाव, १५ धर्मकी प्रभावना व १६ कार्यकी पूर्णता । जो साधु वैयावृत्य करते हैं उनके इतने गुणोंकी प्राप्ति होती है।
अरहंतसिद्धभत्तो गुरुभत्तो सव्यसाहुभत्ती.य। . आसेविदा समग्गा विमला वरधम्मभत्ती य ॥ २२ ॥
भावार्थ-अरहंतकी भक्ति, सिद्ध महाराजी भक्ति, गुरुकी भक्ति, सर्व साधुओंकी भक्ति और निर्मल धर्ममें भक्ति ये सब वेयावृत्यसे होती हैं।
साहुस्स धारणाप वि होइ तह चेव धारिओ संघो। साहू बेच हि संघो ण हु संघो साहुविदिरित्तो ॥ २६ ॥ __ भावार्थ-साधुकी रक्षा करनेसे सर्व संघकी रक्षा होती है, क्योंकि साधु ही संघ है। साधुको छोड़कर संघ नहीं है।
अणुपालिदाय आणा संजमजोगा य पालिदा होति । णिग्गहियाणि कसादियाणि साखिल्लदा व कदा ॥ ३१ ॥
भावार्थ-वैयावृत्य करनेवालेने भगवानकी आज्ञा पाली, अपने और दूसरेके संयम तथा ध्यानकी रक्षा की, अपने और परके कषाय और इंद्रियोंका विजय किया तथा धर्मकी सहायता करी । ....:
इस प्रकार शुभोपयोगी साधु अपना और परका बहुत:वड़ा
१७