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तृतीय खण्ड।
[२४७ अहंदादिसु भक्तिवत्सलता प्रवचनाभियुक्तेषु । विद्यते यदि श्रामण्ये सा शुभयुक्ता भवेच्चर्या ॥ १७॥
अंन्वय सहित सामान्यार्थ-(जदि) यदि (सामण्णे) मुनिके चारित्रमें ( अरस्तादिसु भत्ती ) अनन्तगुण सहित अरहंत तथा सिन्होंमें गुणानुराग है ( पवयणाभिजुत्तेसु वच्छलदा ) आगम या संघके धारी आचार्य उपाध्याय व साधुओंमें विन्य, प्रीति व उनके अनुवृाल वर्तन (बिनदि) पाया जाता है तब ( सा चरिया सुहजुत्ता भवे ) वह आचरण शुगोपयोग सहित होता है। __ विशेषार्थ-जो साधु सर्व रागादि विकल्पोंसे शून्य परम समाधि अथवा शुद्धोपयोग रूप परम सामायिकमें तिघनेको असमर्थ है उसकी शुद्धोपयोगके फल को पानेवाले केवलज्ञानी अरहंत सिद्धोंमें जो भक्ति है तथा शुद्धोपयोगके आराधक आचार्य उपाध्याय साधुमें जो प्रीति है यही शुभोपयोगी साधुओंका लक्षण है ।
भावार्थ-इस गाथामें यह बतलाया है कि साधकोंमें शुभोपयोग कब होता है । आचार्यका अभिप्राय यही है कि शुद्धोपयोग ही मुनिपद है । उसीमें तिष्ठना हितकारी है, क्योंकि वह आश्रव रहित है, परन्तु कषायोंका जिसके क्षय होता जाता है वह तो फिर लौटकर शुभोपयोगमें आता नहीं किन्तु अंतर्मुहुर्त ध्यानसे ही केवलज्ञानी होनाता है। जिनके कपायोंका उदय क्षीण नहीं हुआ बे अंतर्मुहूर्त भी शुद्धोपयोगमें ठहरनेको लाचार होजाते हैं क्योंकि कपायोंके उदयकी तरङ्ग आजाती है व आत्मवलकी कमी है इससे उनको वहांसे हट करके शुभोपयोगमें आना पड़ता है । यदि शुभोपयोगका आलम्बन न लें तो उपयोग अशुभोपयोगमें चला