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श्रीप्रवचनसारटोका।
जं पुणु समयं तच्चं सवियप्पं हवइ तह य अवियप्पं । सवियप्पं सासवयं णिरासवं विगयसंकप्पं ॥५॥ इंदियविसयविराये मणस्स गिल्लूरणं हवे अश्या । तझ्या तं अचियप्पं ससरूचे थप्पणो तं तु ।।
भावार्थ-तत्व दो प्रकारका है एक स्वतत्व दूसरा परतत्व, इनमें स्वतत्व अपना आत्मा है तथा परतत्व अरहंतादि पंच परमेष्टी है । इन पंच परमेकि अक्षररूप मंत्रोंके ध्यानसे भव्य मनुष्यों को बहुत पुण्य वंध होता है तथा परम्परायसे मोक्ष होसक्ती है । और जो स्वतत्त्व है वह भी दो प्रारका है। एक सविकल्प स्वतन्त्र, दूसरा निर्विकल्प सतर। जहां यह विचार किया जाये कि आत्मा ज्ञाता, बटा आनन्दगई है वहां सविकल्प आत्मतत्व है, परन्तु जहां मनका विचार भी बंद होजावे फेवल आत्मा अपने आत्मामें तन्मय हो स्वानुभवरूप हो जावे वहां निर्विकल्प आत्मतत्व है। राग सहित सविकल्प तत्व कोके आश्रवका कारण है जब कि वीतराग निर्विकल्प तत्व कोके आश्रवसे रहित है । जब इन्द्रियोंके विषयोंसे विरकता होती है। तथा मन हलन चलनरहित अर्थात् संकल्प विकल्परहित होता है तब यह निर्विकल्प तत्व अपने आत्माके स्वरूपमें झलकता है जो वास्तवमें आत्माका स्वभाव ही है।
इसी बातको दिखलाना इस गाथाका आशय मालूम होता है । ॥६६॥
उत्थानिका-आगे शुभोपयोगी साधुओंका लक्षण कहते हैंअरहतादिनु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तनु । . विजद्दि जदि सामण्णे सा मुहजुत्ता भवे चरिया ॥३७॥