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तृतीय खण्ड। २४५ स्थिति व अनुभागबन्ध होगा तथापि जहां वुद्धिमें वीतरागता है तथा साथमें इतना कम कपायभावका झलकाव है कि साधुके अनुभवमें नहीं आना, वहां बन्ध बहुत अल्प होगा जिसको कुछ भी न गिनकर ऐसा कह दिया है कि राजोपयोगीके आश्रव व बन्ध नहीं होता है । शुभोपयोगकी अपेक्षा शुद्धोपयोगमें मिश्रित कुछ कपायपनेमे बहुत अल्पबंध होगा । जव ग्यारवें वारहवें गुणस्थानमें कपायका उदय न रहेगा तब बन्ध न होगा। यद्यपि तेरहवें स्थान तक योगोंकी चपलता है इसलिये वहांतक आश्रव होता है तथापि ११, १२, १३ गुणस्थानोंमें कपायका उदय न होनेसे वह सांपरायिक आश्रव न होकर मात्र ईर्यापथ आश्रव होता है-साता वेदनीयकी वर्गणा आकर तुर्त फल देवर झड़ जाती है । यदि सूक्ष्म दृष्टिसे विचार किया जावे तो पूर्ण शुद्धोपयोग वहीं है जहां योगोंकी भी चंचलता नहीं है अर्थात् अयोग गुणस्थानमें, तथापि साधककी बुडिमें झलकनेकी अपेक्षा शुद्धोपयोग सातवें गुणस्थानसे कहा जाता है।
यहां ऐसा अडान रखना उचित है कि शुद्धोपयोग ही साक्षात् मुनिपद है, वही निर्विकल्प समाधि है, वही तत्वसार है उसीको ही ग्रहण करना अपना सच्चा हित है । इसी तत्वसारको जो आश्नव रहित है-आचार्य देवसेनने तत्वसारमें दिखाया है__एवं सगयं तच्चं अण्णं तह परगयं पुणो भणियं ।
सगयं णियअप्पाणं इयरं पंचावि परमेट्ठी ॥ ३ ॥ तेसिं अक्खररूत्रं भवियमगुस्साण झायमाणाणं । वज्झइ पुण्णं बहुसो परंपराए हवे मोक्खो ॥ ४ ॥