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श्रीप्रवचनसारीका |
भावार्थ - जो साधु वैराग्यवान है, परद्रव्योंसे रागी नहीं है, संसारके सुखसे विरक्त है किन्तु आत्मीक शुद्ध सुखमें लीन है, गुणोंसे शोभायमान है त्यागने व ग्रहण करने योग्यमें निश्चयको रखनेवाला है तथा ध्यान और स्वाध्यायमें लीन है यही उत्तम मोक्ष स्थानको पाता है ।
जहां रागद्वेप मोहका त्याग होकर शुद्धात्माका अनुभव होता है, अर्थात जहां समयसारका अनुभव है वहीं मोक्षमार्ग है जैसा श्री अमृतचंद्रजी महाराजने समयसारकलश में कहा है:-- अलमलमतिजल्पैर्विकल्पैरनल्पै
मिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यसेकः ॥
स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्रान खलु समयसारादुत्तरं किञ्चिदस्ति ॥ ५१ ॥ भावार्थ- बहुत अधिक विकल्पजालोंके उठानेसे कोई लाभ नहीं । निश्चय बात यही है कि नित्य एक शुद्धात्माका ही अनुभव करो, क्योंकि आत्मीक रसके विस्तारसे पूर्ण तथा ज्ञानकी प्रगटताको रखनेवाले समयसार अर्थात शुद्धात्मासे बढ़कर कोई दूसरा पदार्थ नहीं है ॥ ६५ ॥
इस तरह श्रमणपना अर्थात् मोक्षमार्गको संकोच करनेकी मुख्यतासे चौथे स्थल में दो गाथाएं पूर्ण हुई ।
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उत्थानिका- आगे शुभोपयोगघारियोंको आश्रव होता है इससे उनके व्यवहारपनसे मुनिपना स्थापित करते हैं-समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होंति समयम्मि । ते वि सुद्धवत्ता अणासवा सासवा सेसा ॥ ६६ ॥