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तृतीय खण्ड।
[२४३ श्रमणाः शुद्धोपयुक्ताः शुभोपयुक्ताश्च भवन्ति समये । तेष्वपि शुद्धोपयुक्ता अनाश्रवाः सास्रवाः शेषाः ।। ६६ ॥ __ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(समयम्मि) परमागममें (समणा) मुनि महाराज ( सुद्धवजुत्ता) शुद्धोपयोगी ( य सुहोवजुत्ता)
और शुभोपयोगी ऐसे दो तरहके (होति) होते हैं । (तेसु.वि) इन दो तरहके मुनियोंमें भी (सुहुवजुत्ता) शुद्धोपयोगी (अणासवा) आश्रव रहित होते हैं ( सेसा ) शेष शुभोपयोगी मुनि (सासवा) आश्रव सहित होते हैं।
विशेषार्थ-जैसे निश्चयनयमे सर्व जीव शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव रूप सिद्ध जीवोंके समान ही हैं, परन्तु व्यवहारनयसे चारों गतियोंमें भ्रमण करनेवाले जीव अशुद्ध जीव हैं तैसे ही शुद्धोपयोगमें परिणमन करनेवाले साधुओंकी मुख्यता है और शुभोपयोगमें परिणमन करनेवालोंकी गौणता है. क्योंकि इन दोनोंके मध्यमें जो शुद्धोपयोग सहित साधु हैं वे आश्रव रहित होते हैं व शेप जो शुभोपयोग सहित हैं वे आश्रववान् हैं। अपने शुहात्माकी भावनाके बलसे जिनके सर्वे शुभ अशुभ संकल्प विकल्पोंकी शून्यता है उन शुद्धोपयोगी साधुओंके कर्मोका आश्रव नहीं होता है, परन्तु शुभोपयोगी साधुओंके मिथ्यादर्शन व विषय कषायरूप अशुभ आश्रवके रुकनेपर भी पुण्याश्रव होता है यह भाव है।
___ भावार्थ-यहां आचार्यने यह बात दिखलाई है कि जो साधु उत्सर्गमार्गी हैं अर्थात् शुद्धोपयोगमें लीन हैं व परम साम्यभावमें तिष्ठे हुए हैं उनके शुभ व अशुभ भाव न होनेसे पुण्य तथा पापका आश्रव तथा बन्ध नहीं होता है, क्योंकि वास्तवमें बंध कषायोंके