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तृतीय खण्ड। [२४१ ___भावार्थ-यहां आचार्यने मोक्षमार्गका संक्षेप सार बता दिया है कि जो मोह, राग, द्वेष नहीं करता है वही साधु है और वही कर्मोंसे मुक्त हो जाता है । वास्तवमें बंधका कारण मिथ्याश्रद्धान मिथ्यानाग और मिथ्याचारित्र सम्बन्धी मोह, राग, द्वेष है। अब तक इनका अस्तित्व है, संसारका कारण तीव्र कर्मबंध होता है । जब मिथ्याश्रद्धान बदलके सम्बन्श्रद्धान होजाता व मिथ्याज्ञाम बदलके सम्यग्ज्ञान हो जाता है तब मात्र राग, द्वेपको हटाना रह गाता है जो अज्ञानपूर्वक नहीं किन्तु ज्ञानपूर्वक होता है तथापि उसको नए करनेकेनी लिये सामायिकका अर्थात् समतापूर्वक आत्मध्यानका विशेष अभ्याप्त किया जाता है । इसीके लिये श्रावकका एक देश चारित्र व मुनिका सर्वदेश चारित्र धारण किया जाता है। श्रमण परम क्षमावान होते हैं । उनके भावमें शत्रु व मित्र एक ही हैं व निश्चयारिसे सर्व आत्माओंको अपने समान मानते हुए राग दुपये दूर रहकर वीतरागतामें रमण करते हैं। क्योंकि पंच मोह. राग, आपसे होता है इसलिये बंधका नाश अर्थात् कर्माका क्षय सम्यक्तपूर्वक वीतरागतासे होता है। इसलिये जो वीतराग सन्यक्त और वीजराग चारित्रमें रमण करता है वही निर्विकल्प समाधिकी अग्निसे सर कोका क्षयकर अरहंत और सिद्ध होजाता है । कुन्दकुन्दस्वामीने नोक्षपाहड़में कहा है:
वेरग्नपरी साह पदमपल्लो व जो होदि । संसारदविरतो सगरे रशुस्यो ॥१०॥ गुणवणविलियंगो ऐयोपादेयणिच्छियो सार । माणज्मणे सुरो सोपानद उत्तम जाण ॥ १०२॥