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________________ २४०] श्रीप्रवचनसारटोका | ह उसका मन बाहरी पदार्थोंमें नही जाता है, तब बाहरी पदार्थोंकी चिन्ता न होनेसे विकार रहित चैतन्यके चमत्कार मात्र भावसे गिरता नहीं है । अपने स्वरूपमें थिर रहनेसे रागद्वेपादि भावोंसे रहित होता हुआ नाना प्रकार कर्मोंका नाश करता है । इसलिये मोक्षार्थीको निश्चल चित्त करके अपने आत्मा की भावना करनी योग्य है। इस तरह वीतराग चारित्रका व्याख्यान सुनके कोई कहते हैं कि सयोग केवलियोंको भी एक देश चारित्र है, पूर्ण चारित्र तो अयोग केवली अंतिम समयमें होगा, इस कारण से हमको तो सम्बेदर्शनकी भावना तथा भेद विज्ञानकी भावना ही वस है | चारित्र पीछे हो जायगा ? उसका समाधान करते हैं कि ऐसा नहीं कहना चाहिये। अभेद नयसे ध्यान ही चारित्र है । वह ध्यान केवलियोंके उपचार से हैं तथा चारित्र भी उपचारसे है। वास्तवमें जो सम्यग्दशेन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक सर्व रागादि विकल्प नालोंसे रहित शुद्धात्मानुभव रूपी छद्मस्थ अर्थात् अपूर्ण ज्ञानीको होनेवाला वीतराग चारित्र है वही कार्यकारी है, क्योंकि इसी ही के प्रतापसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है इसलिये चारित्रमें सदा यत्न करना चाहिये यह तात्पर्य है । यहां कोई शंका करता है कि उत्सर्ग मार्गके व्याख्यानके समयमें भी श्रमणपना कहा गया तथा यहां भी कहा गया यह क्यों ? इसका समाधान करते हैं कि वहां तो सर्वपरका त्याग करना इस स्वरूप ही उत्सर्गकी मुख्यतासे मोक्षमार्ग कहा गया। यहां साधुपनेका व्याख्यान है कि साधुपना ही मोक्षमार्ग है इसकी मुख्यता है ऐसा विशेष है ।
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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